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जिनहर्प-ग्रन्थावली करुणा सागर तुसही, हुँ करुणा रे केरउठ्ठाम ॥ क ।। अोलग घउ जिनहरपस्यु,नही वीजउ रे माहरइ कोई काम।५
सुजंग-जिन-स्तवन
[ ढाल-राजपीयारी भीलडीरे । एदेशी] गामागर पुरवर विहरता रे, भय भंजण स्वामि भुजंग कि ।
प्रभुजी ईहां पधारिज्यो रे । सेवक नइ पाय वंदावीयइ रे, जिम थायइ मन उछरंग कि।१प्र छइ स्वामि तु मनइ पूछिवा रे, माहरा मन केरा सदेह कि ।प्र। संसय मिथ्यात टलइ नहिरे,कुण टालइ तुज विणि तेहकि।२। सामाचारी थई जूजूइ रे, निज निज थापइ सहु कोइ कि ।प्र। सी साची करिनइ मानीयइ रे, मनडा मा डोलउ होइकि ।३प्र। सहु कोकवरायइ जिन मती रे, सहु वांच सूत्र सिद्धांतकि ।प्र। एक थापइ बली एक ऊथपइ रे,मनमांहि पडइ तिणि भ्रांतिकि४ ईहां अतिसय ज्ञानी को नही रे, पूछी करीयइ निरधारकि ।प्र। मनना संदेह निवारीयड रे, करियइ सुध धरम विचारकि । ५ करुणा सागर करुणा करी रे, सेवकनी पूरवउ आसकि।प्र। सफली करि जिनवर चउदमा रे, जिनहरप तणी अरदासकि ६