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________________ बीशी ईश्वरप्रभ-जिन-स्तवन [ ढाल-बाईरे चारणि देवि । एहनी ] जगदानंद जिनंद, बाइ रे जगदानंद जिनंद । त्रिभुवन केरउ राजीयर, वाई रे ईश्वर देव । सेवइ चउसठि इंद्र था। अनंत गुणे करि गाजीयउ ॥१॥ ईश्वर कहइ जे लोक । या । पारवती नउ वालहउ । बा । भसम लगावइ अंग था। ते ईश्वर मत सद्दहउ ॥२ वा ॥ वहसइ वृपभनो पूठि । वा । अलख जगावइ जोगउ । वा । भांग धतूरड़ प्रीति । वा । संग न छोडइ भोगनउ ॥३ वा ॥ यावर गजचर्म । या । लहकइ रंडमाला गलइ । वा । दीसइ अति विद्रप । बा । नाद सबंद धुनि ऊछलइ ॥४वा।। ते इश्वर नही एह वा। भोलइ मत को जाणिज्यो । वा। निरमोही निकलंक वा। तेह नइ ईश्वर मानिज्यो वा५॥ विहरमान जिन राय था। केवल ज्ञानह दीपतउ ॥॥ करि जिनहरख समान वा। ईश्वर प्रसुअरि जीपत उ ॥६ वा।। नेमिप्रभ-जिन-स्तवन [ढाल-साहिबा फुदी लेस्य भी। ए देशी ] नेमि प्रभु सुणि बीनती, थारी चाकरी करू करजोडि रे । साहिबा लाहउ लेस्युजी ।
SR No.010382
Book TitleJinaharsh Granthavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAgarchand Nahta
PublisherSadul Rajasthani Research Institute Bikaner
Publication Year1962
Total Pages607
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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