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जिनहर्ष-ग्रन्थावली लोभ नही तुझ पासई जो, सम त्रिण मणि प्रति भासइ जो। करुणानउ तुदरियउ जो, गुण रतने करी सरीयउ जो २१ धरम तणउ तु धोरी जो, हुं बलिहारी तोरी जो । तुझ सरिपउ उपगारी जो, कोइ नही संसारी जो ॥३॥ भव सायर तुतारइ जो, जनम जरा दुप बारइ जो । सेवक नइ हितकारी जो, भव भव भंजण भारी जो ॥४॥ जंगम सुरतरु विचरइ जो, जोगी भोगी समरइ जो । तुझनइ लेप न लागइ जो, राति दिवस तु जागइ जो ॥५॥ तुझनइ काम न व्यापइ जो, करम तणी जड कापइ जो । आप सरीपउ कीजइ जो, जिम जिनहरप पतीजइ जो ॥६॥
चन्द्रानन-जिन-स्तवन [ ढाल-गरवै रमिवा प्रावि मात जसोदा तो नइ वीनवु रे । ए देशी] चंद्रानन स्वामी चंद्रथी अधिक तु सीयलउ रे । चंद्र कलंकित जोइ तुतउ दिन दिन ऊजलउ रे ॥१॥ थाइ कला ते हीण, वधती घटती नहीं सारिपी रे।। ताहरी कला नहीं पीण, परतपि कीधी नई पारिपीरे ॥२॥ तेहनइ लंछण लोक, कोई लावइ छइ केहवा रे । तुज नहीं कोई, पुन्यइ पामीयइ एहवा रे ।। ३ ।।