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जिनदर्प-ग्रन्थावली
ऋपभानन-जिन - स्तवन
[ बाल - गावउ गुरण गरवारे | ए देशी । ] ऋपमानन जिन सातमउ गुण प्रभुजी रे, विहरमाण जिनराय गावउ गुण प्रभुजी रे, सुरनर विद्यावर सहु | गु.। प्रणमड़ जेहना पाय गा. ॥१॥ केवल सूर्योदय करी । गु.। लोकालोक प्रकास । गा । मनना संसय अपहरड़ || अतिसय अधिकउ जास ॥गा. २ || दीठा सुरम प्रतिघणा । गु। ते सगला मां पोड । गा. । केई लंपट केई लालची | गु। नावइ एहनी जोडि ॥गा. ३ || चंद्र वदन देपी करी | गु| हरपड़ चित्त चकोर । गा । महाविदेहना मानवी | गु| नाच मन जिम मोर ॥ गा. ४॥ कीज निसि दिन चाकरी |गु । जउ रही यह प्रभु पासि । गा ।
पड़ पदवी आपणी । गु । अविचल लील विलास || गा५|| महाविदेहमां विहरता | गु। जग गुरु जगदानंद | गा. | जास पसाय पामीयड़ । गु| कहइ जिनहरप आणंद || गा६ ||
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अनन्तवीर्य - जिन - स्तवन
[ ढाल - नवी नवी नगरीमा वसइरे सोनार । कान्हजी घडावर नवसर हार । एदेशी ॥ ] अनंतवीरज ठमउ जिनराय । सुरनर इंद्र नमड़ जसु पाय ॥ त्रिगढड़ बइठा करइ रे चपाण। साकर पाहई मीठी वाण ॥ १ ॥
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