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चौवीशी
छेदन भेदन कुंभी पाचन, पर वैतरिणी तोइ ।
कोइ छुराइ सक्यु नही जर दुष, मइ सर भरीया रोड़।।३म।। __ सबहि सगाई जगत ठगाई, स्वारथ के सब लोइ । __ एक जिनहरप चरम जिनवर कुं,
सरण हीया मइ ढोइ ॥४म।।
- इलश -
राग-धन्यासिरी जिनवर चउबीसे गाए।
भाव भगति इक चितमती जइसी,
गुण हीयरा मई ठाए ॥१हो जि।। चउनीसे जिनवर जगनायक, -सिवपुर महल वनाए ।
चरण कमल की सेवा सारइ,
हइ भी पासि रहाए ॥२ हो जि।। मतरइ अठतीसह संवच्छर, फागुण यदि परिवाए ।
वाचक शांतिहरष सुपसायई, जिन जिनहरष मन्हाए ॥३हो जि।। इति श्रीचतुर्विशति जिन-गीतानि समाप्तानि