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तृतीयभाग। अशरन-शरन अनुग्रह कीजे, यह दुख मेटि मुकति मुझ दीजे ॥४॥ दीरघ काल गयो विललावें, अब ये सूल सहे नहिं जावें । सुनियत यों जिनशासनमाहीं, पंचम काल परमपद नाहीं ॥५॥ कारन पांच मिलैं जव सारे, तब । शिव सेवक जाहिं तुम्हारे । तातें यह विनती
अव मेरी, स्वामी ! शरण लई हम तेरी ॥६। प्रभु आरौं चितचाह प्रकासौं, भव भव श्रावक कुल अभिलासौं । भव भव जिन आगम अव गाहौं, भव भव भक्ति शरणकी चाहौं ॥७॥ भव
भवमें सत संगति पाऊं, भव भव साधनके गुन . गाऊं । परनिंदा मुख भूलि न भाखू, मैत्रीभाव
सबनसों राखू ॥८॥ भव भव अनुभव आतमकेरा, होहु समाधिमरण नित मेरा । जवलौं जनम जगतमें लाधौं, काललवधि वल लहि शिव साधौ ॥९॥ तवलौं ये प्रापति मुझ हूजौ, भक्ति प्रताप मनोरथ पूजौ । प्रभु सब समरथ हम यह लोरें, भूधर अरज करत कर जोरै ॥ १० ॥