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जैन पदसंग्रह७५. नेमिनाथजीकी विनती। त्रिभुवनगुरु स्वामी जी, करुनानिधि नामी जी। सुनि अंतरजामी, मेरी वीनती जी ॥१॥ मैं दास तुम्हारा जी, दुखिया बहु भारा जी ! दुख मेटनहारा, तुम जादोपती जी ॥२॥ भरम्यो संसारा जी, चिर विपति-भंडारा जी.। कहिं सार न सारे, चहुँगति डोलियो जी ॥ ३ ॥ दुख मेरु समाना जी, सुख सरसों-दाना जी। अब जान •धरि ज्ञान, तराजू तोलिया जी॥४॥ थावर तन पाया जी, त्रस नाम धराया जी । कृमि कुंथु कहाया, मरि अँक्रा हुवा जी ॥५॥ पशुकाया सारी जी, नाना विधि धारी जी । जलचारी थलचारी, उड़न पखेरु हुवा जी ॥ ६॥ नरकनकेमाहीं जी. दुख ओर न काहीं जी। अति घोर जहाँ है, सरिता खारकी जी ॥७॥ पुनि असुर संघारै जी, निज वैर विचारै जी । मिलि बांधैं अर मारें, निरदय नारकी जी॥८॥मा• Yष अवतारै जी, रह्यो गरभमँझारै जी । रंटि
जनमत, वारें मैं धनों जी ॥ ९॥ जो