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________________ ५६ जैन पदसग्रह जमै पानी पोखरा, थरहरै सबकी काय ॥ तब नगन निवसैं चौहदैं, अथवा नदकि तीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ ७ ॥ कर जोर भूधर बीनवै, कब मिलें वह मुनिराज । यह आस मनकी कब फलै, मेरे सरें सगरे काज ॥ संसार विषम विदेशमें, जे विना कारण वीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥ ८ ॥ 1 ७४. विनती । ( चौपाई १६ मात्रा | ) जै जगपूज परमगुरु नामी, पतित उधारन अंतरजामी । दास दुखी तुम अति उपगारी, सुनिये प्रभु ! अरदास हमारी ॥ १ ॥ यह भव घोर समुद्र महा है, भूधर भ्रम - जल-पूर रहा है । अंतर दुख दुःसह बहुतेरे, ते बड़वानल साहिब मेरे ॥ २ ॥ जनम जरा गद मरन जहां है, ये ही प्रबल तरंग तहां है । आवत विपति नदीगन जायें, मोह महान मगर इक तामें ॥ ३ ॥ तिस मुख जीव परयो दुख पावै, हे जिन ! तुम विन कौन छुड़ावै । १ चौपटमैदान । २ सिद्ध होवें । ३ सब | L
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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