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तृतीयभाग। निंदा वड़ाई सारिखी, वनखण्ड शहर अनूप ॥ सुख दुःख जीवन मरनमें, नहिं खुशी नहिं दिलगीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥३॥ जे वाह्य परवत वन वसैं, गिरि गुहां महल मनोग । सिल सेज समता सहचरी, शशिकिरण दीपक जोग ॥ मृग मित्र भोजन तपमई, विज्ञान निरमल नीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥४॥ सुखें सरोवर जल भरे, सूखै तरंगनितोय । वाटें वटोही ना चलैं, जहां घाम गरमी होय ॥ तिस काल मुनिवर तप तपैं, गिरिशिखर ठाड़े धीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥५॥ घन घोर गरजैं घनघटा, जल परै पावसकाल । चहुँ ओर चमके वीजुरी, अति चलै शीतल व्याल ॥ तरुहेट तिष्ठें तव जती, एकान्त अचल शरीर । ते साधु मेरे मन वसो, मेरी हरो पातक पीर ॥६॥ जवशीत मास तुपारसों, दाहै सकल वनराय । जव
१ समान, बगबर । २ नटीका जल | 3 रास्तेसे । ४ मुसाफिर । ५ बरसातमें । ६ पवन । ७ वृक्षके नीचे।