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________________ ५२ जैन पदसंग्रहतत्त्व प्रकाशियो । अब भई कमला किंकरी मुझ, उभय भव निर्मल ठये । दुख जरो दुर्गतिवास निवरो, आज नव मंगल भये ॥ २ ॥ मनहरन मूरति हेरि प्रभुकी, कौन उपमा लाइये। मम सकल तनके रोम हुलसे, हर्ष ओर न पाइये ॥ कल्याणकाल प्रतच्छ प्रभुको, लखें जो सुर नर घने । तिस समयकी आनन्दमहिमा, कहत क्यों मुखसों बने ॥३॥ भर नयन निरखे नाथ तुमको, और वांछा ना रही । मन ठठ मनोरथ भये पूरन, रंक मानो निधि लही । अब होय भव भव भक्ति तुम्हरी, कृपा ऐसी कीजिये । कर जोर 'भूधरदास' विनवै, यही वर मोहि दीजिये ॥ ४ ॥ ७२. विनती। तुम तरनतारन भवनिवारन, भविक मनआ'नन्दनो । श्रीनाभिनन्दन जगतवन्दन, आदि नाथ जिनिन्दनो ॥ तुम आदिनाथ अनादि , सेऊ, सेय पद पूजा करों । कैलाशगिरिपर ऋषभ जिनवर, चरणकमल हृदय धरों ॥१॥
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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