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तृतीयभाग । भूख प्यास पीड़ें कन मांगें, होत अनादर पग पगमें । ये परतच्छ पाप संचित फल, लगें असुंदर जे जगमें ॥ ४ ॥ इस भव वनमें वे !, ये दोऊ तरु जाने । जो मन माने वे !, सोई मींचि सयाने ॥ सींचि सयाने! जो मन माने, 1 चैर वेर अब कौन कहै । तू करतार तुही फलभोगी, अपने सुख दुख आप लहै ॥ धन्य ! धन्य ! जिन मारग सुंदर, सेवन जोग तिहूँ पनमें । जासों समुझि परे सब भूधर, सदा शरण इस भववनमें ॥ ५ ॥
७१. विनती । हरिगीतिका ।
पुलकन्त नयन चकोर पक्षी, हँसत उर इन्दीचरो । दुर्बुद्धि चकवी विलख विकुरी, निविड़ मिथ्यातम हरो ॥ आनन्द अम्बुज उमग उछस्यो, अखिल आतम निरदले । जिनवदन पूर नचन्द्र निरखत, सकल मनवांछित फले ॥ १ ॥ मुझे आज आतम भयो पावन, आज विघ्न विनाशियो । संसारसागर नीर निवट्यो, अखिल