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जैन पदसंग्रहवोलैं गुरुज्ञानी, सखि सयानी मन मेरे ॥१॥ तू मति तरसै वे !, सम्पतिं देखि पराई । बोये लुनि ले वे !, जो निज पूर्व कमाई । पूर्व,कमाई सम्पति पाई, देखि देखि मति झूर मरै । बोय बबूल शूल-तरु भोंदू !, अमनकी क्या आस करै ॥ अव कछु समझ बूझ नर तासों, ज्यों फिर परभव सुख दरसै । करि निजध्यान दान तप संजम, देखि विभव पर मत तरसै ॥२॥ जो जग दीसै वे !, सुंदर अरु सुखंदाई । सो सब फलिया वे!, धरमकल्पद्रुम भाई ! सो सब धर्म कल्पद्रुमके फल, रथ पायक बहु ऋद्धि सही। तेज तुरंग तुंग गज नौ निधि. चौदह रतन छखण्ड मही॥रति उनहार रूपकी सीमा, सहस छ्यानवै नारि वरै । सो सब जानि धर्मफल भाई! जो जग सुंदर दृष्टि परै ॥३॥ लगैं असुंदर वे!, कंटक वान घनेरे । ते रस फलिया वे !, पाप • कनक-तरु केरे ॥ ते सब पाप कनकतरुके फल, । सोग दुख नित्य नये । कुथित शरीर चीर नहिं तापर, घर घर फिरत फकीर भये ॥