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जैन पदसंग्रहगरभ खेतमें मास नौ, निजरूप दुराया । बाल अंकुरा बढ़ गया, तव नजरों आया ॥१॥ अस्थिरसा भीतर भया, जानै सव कोई । चाम त्वचा ऊपर चढ़ी, देखो सव लोई ॥२॥ अधो अंग जिस पेड़ है, लख लेहु सयाना । भुज शाखा दल आँगुरी, दृग फूल रवाना ॥३॥ वनिता बेलि सुहावनी, आलिंगन कीया । पुत्रादिक पंछी तहां, उड़ि बासा लिया॥४॥ निरख विरेख बहु सोहना, सबके मनमाना । स्वजन लोग छाया तकी, निज स्वारथ जाना ॥ ५॥ काम भोग फलसों फला, मन देखि लुभाया । चाखतके मीठे लगे, पीछे पछताया ॥६॥ जरादि बलसों छबि घटी, किसही न सुहाया । काल अगनि जब लहलही, तब खोज न पाया ॥७॥ यह मानुष द्रुमकी दशा, हिरदै धरि लीजे । ज्यों हूवा त्यों जाय है, कछु जतन करीजे ॥८॥धर्म सलिलसों सींचिकै, तप धूप दिखइये । सुरग . फल तब लगैं, भूधर सुख पइये ॥ ९॥ १ रमणीय । २ वृक्ष । ३ पता ।