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________________ ४५ तृतीयभाग। सात विसन आठौं मद सागो, करुना चित्त विचारो । तीन रतन हिरदैमें धारो, आवागमन निवारो ॥ वृथा० ॥ ४ ॥ भूधरदास कहत भविजनसों. चेतन अव तो सम्हारो। प्रभुको नाम तरन तारन जपि, कर्मफन्द निरवारो ॥ वृथा०॥५॥ ६५. राग ख्याल । नैननिको वान परी, दरसनकी ॥ टेक ॥ जिनमुखचन्द चकोर चित्त मुझ, ऐसी प्रीति करी ।। नैन० ॥१॥ और अदेवनके चितवनको अव चित चाह टरी । ज्यों सव धूलि दवे दिशि दिशिकी, लागत मेघझरी ।। नैन० ॥२॥ छवी समाय रही लोचनमें, विसरत नाहिं घरी । भूधर कह यह टेव रहो थिर, जनम जनम हमरी ॥ नैन० ॥३॥ ६६. चाल गोपीचन्दकी। यह तन जंगम रूखंड़ा, सुनियो भवि पानी। एक बूंद इस वीच है, कछु वात न छौनी॥टेक॥ १ वृक्ष । २ छुपी।
SR No.010377
Book TitleJainpad Sangraha 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJain Granth Ratnakar Karyalaya Mumbai
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year
Total Pages77
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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