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________________ ३६ जैनपदसंग्रह. थूल सम थाया || गिरनारी० ॥ २ ॥ जाहि पुरन्दर पूजन आये, सुन्दर पुन्य उपाया । भागचन्द सम प्राननाथ सो, ' और न मोह सुहाया || गिरनारी० ॥ ३ ॥ ६८: राग दीपचन्दी परज । नाथ भये ब्रह्मचारी, सखी घर मैं न रहोंगी ॥ टेक ॥ पाणिग्रहण काज प्रभु आये, सहित समाज अपारी । ततछिन ही वैराग भये हैं, पशुकरुना उर धारी ॥ नाथ० ॥ ॥ १ ॥ एक सहस्र अष्टलच्छनजुत, वा छविकी बलिहारी । ज्ञानानंद मगन निशिवासर, हमरी सुरत विसारी ॥ नाथ० ॥ २ ॥ मैं भी जिनदीक्षा धरि हों अव, जाकर श्रीगिरनारी । भागचन्द इमि भनत सखिनसों, उग्रसेनकी कुमारी ॥ नाथ० ॥ ३ ॥ ६९. राग दीपचन्दी कानेर । . जानके सुज्ञानी, जैनवानीकी सरधा लाइये ॥ टेक ॥ जा विन काल अनंते भ्रमता, सुख न मिलै कहुं प्रानी ॥ ॥ जानके० ॥ १ ॥ स्वपर विवेक अखंड मिलत है, जाही के सरधानी || जानके० ॥ २ ॥ अखिलप्रमानसिद्ध अविरुद्धत, स्यात्पद शुद्ध निशानी || जानके० ॥ ३ ॥ भागचन्द सत्यारथ जानी, परमधरमरजधानी ॥ जानके० ॥ ४ ॥
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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