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द्वितीयमाग. गद, मोहादिक विस्तारा ॥ टेक ।। जाके अंग न भस्म लिप्त है, नहिं रंडनकृत हारा । भूपण व्याल न भाल चन्द्र नहिं, शीस जटा नहिं धारा ॥ सोई है० ॥१॥ जाके गीत न नृत्य न मृत्यु न, घटतनो न सवारा । नहिं कोपीन न काम कामिनी, नहिं धन धान्य पसारा ॥ सोई है० ॥२॥ सो तो प्रगट समस्त वस्तुको, देखन जाननहारा । भागचन्द ताहीको ध्यावत, पूजत वारंवारा ॥ सोई है० ॥३॥
६६. समझाओजी आज कोई करनाधरन, आये थे व्याहिन काज वे तो भये, हैं विरागी पशूदया लख लख | टेक ॥ विमल चरन पागी, करन विपय त्यागी, उनने परम ज्ञानानंद चख चख ॥ समझायो० ॥१॥सुभग मुकति नारी, उनहिं लगी प्यारी, हमसों नेह कछु नहीं रख रख । समझायो० ॥ २ ॥ वे त्रिभुवनस्वामी, मदनरहित नामी, उनके अमर पूजे पद नख नख ।। समझायो०॥३॥ भागचन्द मैं तो तलफत अति जैसे, जलसों तुरत न्यारी जक झख झख ॥ समझायो० ॥४॥
६७. गिरनारीपं ध्यान लगाया, चल सखि नेमिचन्द मुनिराया ॥ टेक ।। मंग भुजंग रंग उन लखि तजि, शत्रु अनंग भगाया। बाल ब्रह्मचारी व्रतधारी, शिवनारी चित लाया ॥ गिरनारी० ॥ १॥ मुद्रा नगन मोहनिद्रा विन, नासादृग मन भाया । आसन धन्य अनन्य वन्य चित, पुष्ट (8)