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द्वितीयभाग.
तुमरो जस घोकें मानों । त्रैलोक्यनाथ यह जानों ॥ हरिचन्दन सुमन सुहाये । दशदिशि सुगंधि महकाये ॥ अलिपुंज विगुंजत जामें । शुभ वृष्टि होत तुम सा ॥ १०॥ भामंडल दीप्ति अखंड । छिप जात कोट मार्तंड || जग लोचनको सुखकारी । मिथ्यातमपटल निवारी ॥ तुमरी दिव्यध्वनि गाऊँ । विन इच्छा भविहित काजै ॥ जीवादिक तत्त्वप्रकाशी । भ्रमतमहर सूर्यकलासी ॥ इत्यादि विभूति अनंत । वाहिज अतिशय अरहंत । देखत मन भ्रमतम भागा । हित अहित ज्ञान उर जागा ॥ तुम सब लायक उपगारी । में दीन दुखी संसारी ॥ तातें सुनिये यह अरजी । तुम शरन लियो जिनवरजी ॥ मैं जीवद्रव्य विन अंग । लागो अनादि विधि संग ॥ ता निमित पाय दुख पाये । हम मिथ्यातादि महा ये । निज गुन कहं नहिं भाये । सब परपदार्थ अपनाये । रति अरति करी सुखदुखमें। व्हें करि निजधर्म विमुख मैं १६ पर - चाह - दाह नित दाहो । नहिं शांत सुधा अवगाहा ॥ पशु नारक नर सुरगतमें । चिर भ्रमत भयो भ्रममत में ॥ १७॥ कीनें बहु जामन मरना । नहिं पायो सांचो शरना । अब भाग उदय मो आयो । तुम दर्शन निर्मल पायो॥ १८ ॥ मन शांत भयो र मेरो । बाढ़ो उछाह शिवकेरो ॥ परविपयरहित आनन्द । निज रस चाखो निरद्वन्द ||१९|| मुझ काजतनं कारज हो । तुम देव तरन तारन हो । तातें ऐसी अब कीजे । तुम चरन भक्ति मोह दीजे ॥२०॥
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