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________________ ३२ जैनपदसंग्रह. दृग-ज्ञान-चरन परिपूर । पाऊं निश्चय भवचूर ॥ . दुखदायक विषय कषाय । इनमें परनति नहिं जाय ॥२१॥ सुरराज समाज न चाहों। आतम समाधि अवगाहों। पर इच्छा मो मनमानी। पूरो सव केवलज्ञानी ॥ २२॥ दोहा। गनपति पार न पावहीं, तुम गुनजलधि विशाल। भागचन्द तुव अक्ति ही, करै हमें वाचाल ॥२३॥ ६०. गीतिका। तुम परम पावन देख जिन,अरि-रज-रहस्य विनाशनं। तुम ज्ञान-दृग-जलवीच त्रिभुवन, कमलवत प्रतिभासन । आनंद निजज अनंत अन्य, अचिंत संतत परनये । बल अतुल कलित स्वभावतें नहि, खलित गुन अमिलित थये ॥१॥सब राग रुष हनि परम श्रवन स्वभाव धन निर्मल दशा। इच्छारहित भवहित खिरत, वच सुनत ही श्रमतम नशा । एकान्त-गहन-सुदहन स्यात्पद, बहन मय निजपर दया । जाके प्रसाद विपाद विन, सुनिजन सपदि शिवपद लहा ॥२॥ भूषन वसन सुमंनादिविन तन, ध्यानमय मुद्रा दिपै । नासाग्र नयन सुपलक हलय न, तेज लखि खगगन छिपै ॥ पुनि वदन निरखत प्रशम जल, वरखतं सुहरखत उर धरा । वुधि स्वपर परखत पुन्यआकर, कलिकलिल दुरखत जरा ॥३॥ इत्यादि बहिरंतर असाधारन, सुविभवनिधान जी । इन्द्रादिवंद पदारविंद, अनिंद
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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