________________
३०
जैनपदसंग्रह. ॥३॥ जव भ्रमनींद त्याग निजमें निज, हित हेत सम्हारत. है। वीतराग सर्वज्ञ होत तव, भागचन्द हितसीख कहै । चेतन० ॥४॥
दोहा। विश्वभावव्यापी तदपि, एक विमल चिद्रूप । ज्ञानानंदमयी सदा, जयवंतौ जिनभूप ॥ छन्द चाल।
' : सफली मम लोचनद्वंद्व । देखत तुमको जिनचंद । मम तनमन शीतल एम । अम्रतरस सींचत जेम ॥ . तुम वोध अमोघ अपारा । दर्शन पुनि सर्व निहारा ॥ आनंद अतिन्द्रिय राजै । वल अतुल स्वरूप न त्याजै ॥ इत्यादिक स्वगुन अनन्ता । अन्तर्लक्ष्मी भगवंता। वाहिज विभूति बहु सोहै । चरनन समर्थ कवि को है। तुम वृच्छ अशोक सुस्वच्छ । सव शोकहरनको दच्छ । तहां चंचरीक गुंजारें। मानों तुम स्तोत्र उचारें ॥ शुभ रत्नमयूख विचित्र । सिंहासन शोभ पवित्र ॥: तहां वीतराग छवि सोहै । तुम अंतरीछ मनमोहै। . चर कुन्दकुन्द अवदात । चामरव्रज सर्व सुहात ।। तुम ऊपर मघवा ढारै । धर भक्ति भाव अघ टारै । मुक्ताफल माल समेत । तुम ऊर्द्ध छनत्रय सेत ॥ . मानों तारान्वित चन्द । त्रय मूर्ति धरी दुति वृन्द ।। - शुभ दिव्य पटह बहु वा । अतिशय जुत अधिक विराजें।