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जैनपदसंग्रह. रतन अमोलक, रंकपुरुप जिमि पायो ॥ प्रभू० ॥१॥ निर्मलरूप भयो अव मेरो, भक्तिनदीजल न्हायो ॥ प्रभू थांको० ॥२॥ भागचन्द अव मम करतलमें, अविचल शिवथल आयो ॥ प्रभू०॥३॥
४४.
राग मल्हार। प्रभू म्हांकी सुधि, करना करि लीजे ॥ टेक ॥ मेरे इक अवलम्बन तुम ही, अव न विलम्ब करीजे ॥ प्रभू० ॥१॥ अन्य कुदवे तजे सब मैंने, तिनतै निजगुन छीजे ॥प्रभू० ॥२॥ भागचन्द तुम शरन लियो है, अब निश्चलपद दीजे ॥ प्रभू० ॥३॥
४५.
राग कलिंगड़ा। ऐसे साधू सुगुरु कव मिल हैं ।। टेक ॥ आप त अरु परको तारें, निष्प्रेही निरमल हैं ॥ ऐसे० ॥१॥ तिलतुषमात्र संग नहिं जाकै, ज्ञान-ध्यान-गुन-बल हैं । ऐसे साधू० ॥२॥ शान्तदिगम्बर मुद्रा जिनकी, मन्दिरतुल्य अचल हैं। ऐसे०॥३॥ भागचन्द तिनको नित चाहै, ज्यों कमलनिको अल है। ऐसे०॥४॥
राग कहरवा कलिंगड़ा। केवल जोति सुजागी जी, जव श्रीजिनवरके ॥ टेक ॥ लोकालोक विलोकत जैसे, हस्तामल वड़भागी जी के० ॥