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________________ जैनपदसंग्रह। १०७ । राग-विलावल। ऋषभदेव जनम्यौ धन घरी ॥टेक ॥ इन्द्र न. गंधर्व वजाबैं. किन्नर वह रस भरी ॥ ऋपभ० ॥१॥ पट आभूषन पुहुपमालसों, सहसवाहु सुरतरु व्है हरी। दश अवतार स्वांग विधि पूरन, नाच्यो शक भगति उर धरी। ऋषभ० ॥२॥ हाथ हजार सवनिपै अपछर, उछरत नसमें चहुँदिशि फरी। करी करन अपछरी उछारत, ते सब न₹ गँगनमें खरी ॥ ऋपभ० ॥३॥ प्रगट गुपत भूपर अंवरमें, नाचें सवै अमर अमॅरी । धानत घर चैत्यालय कीनौं, नाभिरायजी हो लहरी ॥ ऋषम०॥४॥ १०८ । मानुष जनम सफल भयो आज ॥ टेक ॥ सीस सफल भयो ईर्स नमत ही, श्रवन सफल जिनवचन समाज ॥ मानुष०॥१॥ भाले सफल जु दयाल ति- . लकतें, नैन सफल देखे जिनराज । जीभ सफल जिनवानि गानतें, हाथ सफल करि पूजन आज ॥ मानुष० ॥२॥ पार्य सफल जिन भौन गौनत, काय सफल नाचें वल गाज । वित्तं सफल जो प्रभुकौं लागै, चित्त १ फूलोंकी माला । २ कल्पवृक्ष । ३ इन्द्र । ४ आकाशमें । ५ आकाशमें । ६ देव । ७ देवाङ्गना। ८ ईश्वर, अरहन्तदेव । ९ ललाट । १० पांव । ११ जानेसे । १२ द्रव्य ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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