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________________ ५७ चतुर्थभाग। सफल प्रभु ध्यान इलाज ॥ मानुप० ॥३॥ चिन्तामनि चिंतित-वर-दाई, कलपवृच्छ कलपनतें काज । देत अचिंत अकल्प महासुख, धानत भक्ति गरीवनिवाज ॥ मानुप० ॥४॥ १०९ । राग-ख्याल । री चल दिये चल दिये, री, महावीर जिनराय । पाप निकन्दिये महावीर जिनराय, बारी बारी महिमा कहिय न जाय ॥ टेक ॥ विपुलाचल परवतपर आया, समवसरन बहु भाय ॥री चलि०॥१॥ गौतमरिखसे गनधर जाके, सेवत सुरनर पाय ॥री चल० ॥२॥ विल्ली मूसे गाय सिंहसों, प्रीति करै मन लाय ॥री चल० ॥३॥ भूपतिसहित चेलना रानी, अंग अंग हुलसाय ॥री चल० ॥४॥ द्यानत प्रभुको दरसन सुरग मुकति सुखदाय ॥री चल०॥५॥ ११० । राग-सारंग । मेरे मन कब है है वैराग ॥ टेक ॥ राज समाज अकाज विचारों, छारौं विपय कारे नाग ॥ मेरे ॥१॥ मंदिर वास उदास होय, जाय वसौं वन वाग ॥ मेरे ॥२॥ कव यह आसा कांसा फूटै, लोभ भाव जाय भाग ॥ मेरे० ॥३॥ आप समान सबै जिय जा१ऋपिसरीखे।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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