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________________ चतुर्थभाग । १०५ । सब जगको प्यारा, चेतनरूप निहारा ॥ टेक ॥ दरव भाव नो करम न मेरे, पुदगल दरव पसारा ॥ सव० ॥ १ ॥ चार कपाय चार गति संज्ञा, बंध चार पर - कारा | पंच वरन रस पंच देह अरु, पंच भेद संसारा ॥ सव० ॥ २ ॥ छहों दर छह काल छया छेमत छलेच्या, भेदतें पारा । परिगृह मारगंना गुन- थानक, जीवथानसों न्यारा ॥ सब० ॥ ३ ॥ दरसनज्ञानचरनगुनमण्डित, ज्ञायक चिह्न हमारा । सोऽहं सोऽहं और सु और, arra निचै धारा ॥ सत्र० ॥ ४ ॥ ५५ १०६ । राग - विहागरा । जो तैं आतमहित नहिं कीना ॥ टेक ॥ रोमा रामा धन धन कीना, नरभव फल नहिं लीना । जो तैं ० “ ॥ १ ॥ जप तप कर लोक रिझाये, प्रभुताके रस भीनों | अंतर्गत परिनाम न सोधे, एको गरज सरी ना ॥ जो तैं० ॥ २ ॥ बैठि सभा में वह उपदेशे, आप भये परवीना | ममता डोरी तोरी नाहीं, उत्तमतैं भये हीना ॥ जो तैं० ॥ ३ ॥ द्यानत मन वच काय लायके, जिन अनुभव चित दीना । अनुभव धारा ध्यान विचारा, मंदर कलश नवीना ॥ जो तैं० ॥ ४ ॥ १ पद्मत । २ मार्गणा । ३ श्री । ४ मगन होकर। ५ एक भी । ६ सिद्ध न हुई ।
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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