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________________ जैनपदसंग्रह। १०३। राग-विलावल। - श्रीजिननाम अधार, सार भजि ॥ टेक ॥ अगम अतट संसार उदधितै, कौन उतारै पार ॥ श्रीजिन ॥१॥ कोटि जनम पातक कटें, प्रभु नाम लेत इक वार । ऋद्धि सिद्धि चरननिसों लागै, आनंद होत अपार ॥ श्रीजिन० ॥२॥ पशु ते धन्य धन्य ते पंखी, सफल करें अवतार । नाम विना धिक् मानवको भत्र, जल वल है है छार ॥ श्रीजिन०॥३॥ नाम समान आन नहिं जग सब, कहत पुकार पुकार। धानत नाम तिहूँपन जपि लै, सुरगमुकतिदातार ॥ श्रीजिन० ॥४॥ देखे सुखी सम्यकवान ॥ टेक ॥ सुख दुखको दुखरूप विचारें, धारे अनुभवज्ञान ॥ देखे० ॥१॥ नरक सात के दुख भोगैं, इन्द्र लखें तिन-मान । भीख मांगकै उदर भरै, न करें चक्रीको ध्यान ॥ देखे० ॥२॥ तीर्थकर पदकों नहिं चावें, जदपि उदय अप्रमान। कुष्ट आदि बहु व्याधि दहत न, चहत मकरध्वजथान ॥ देखे० ॥३॥ आधि व्याधि निरवाध अनाकुल, चेतनजोति पुमान । धानत मगन सदा तिहिमाही, नाहीं खेद निदान ॥ देखे० ॥४॥ १ मनुष्यभव । २ तिनकेके वरावर । ३ कामदेव। .
SR No.010375
Book TitleJainpad Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1909
Total Pages253
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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