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जैनेन्द्र के उपन्यास - साहित्य में शिल्प-रूप
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वह इससे लाभ उठाने के उद्देश्य से अपनी पुत्री को उसके संपर्क में लाता है । वह भी जयंत के साहचर्य की कामना करने लगती है । कुमार चाहता है कि चंद्री का विवाह जयंत में हो जाय । जयन्त इसमें असमर्थता प्रकट करता है और पुनः अनिता के पास पहुँच जाता है । वह यह भी निश्चय करता है कि युद्ध में जाकर प्रारण दे दूंगा | बीच में कुछ ऐसी परिस्थितियाँ उपजती हैं कि वह चंद्री से विवाह कर लेता है, इसके आगे की कथा उभी हुई है । जयन्त, ग्रनिता, चंद्री, पुरी तथा कपिला आदि पात्र - पात्रियाँ कठपुतली की भाँति व्यवहार करते हैं और कथानक की गति क्रमशः रुद्ध होकर समाप्त हो जाती है । इस प्रकार से इस उपन्यास के कथानक में भी गतिहीनता के कारण प्रभावात्मकता नहीं या सकी है और न ही कोई नवीन शिल्प रूप ही निर्मित हो सका है।
"जयवर्धन" की कथा में एक अमेरिकन पत्रकार विलवर हूस्टन की २१ फरवरी २००७ से लेकर १० अप्रैल २००७ के बीच मे लिखी गयी डायरी को प्रस्तुत किया गया है । कथात्मक शिल्प की दृष्टि से यह उपन्यास लेखक के पूर्ववती उपन्यासों से पर्याप्त भिन्नता रखता है । इस कथा का नायक स्वयं जयवर्धन ही है । इसके अतिरिक्त कथावस्तु के महत्त्व की दृष्टि से स्वामी चिदानन्द, लिज़ा, इला तथा नाथ प्रादि चरित्र विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण हैं । कथा आरम्भ से ही अनेक सूत्रों मे विभक्त होकर विकसित हुई है । मुग्य सूत्र दो हैं । ये दोनों सूत्र कथा के नायक जयवर्धन के वैयक्तिक तथा राजनैतिक जीवन को आधार बना कर गतिशील रहते हैं । इस उपन्यास का कथानक पात्रों के तर्क-सूत्रों, विचार-तत्त्वों, सामाजिक प्रादर्शों और राजनैतिक-दर्शन आदि के बहुलता से समावेश के कारण कुछ बोभिल-सा हो गया है ।
उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि जैनेन्द्र के उपन्यासों में शिल्प रूपों के प्रयोग की दृष्टि से प्रौढ़ता तो अवश्य मिलती है, परन्तु स्वयं उनकी अपनी ही कृतियों में उनका सम्यक् विकास नहीं हो सका है । उनमें घटनाओं की संघटनात्मकता पर बहुत कम बल दिया गया है । मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से जैनेन्द्र अपने पात्रों की सामान्य गति में ही सूक्ष्म संकेतों की निहिति की खोज करके उन्हें बड़े कौशल से प्रस्तुत करते हैं । इसी कारण से उनकी चारित्रिक विशेषतायें संयुक्त होकर उतरती हैं | चरित्रों की प्रतिक्रियात्मक संभावनाओं के निर्देशक सूत्र ही मनोविज्ञान और दर्शन का श्राश्रय लेकर विकास को प्राप्त होते हैं । जैनेन्द्र के प्रायः सभी उपन्यासों में दार्शनिक और प्राध्यात्मिक तत्वों का समावेश अधिकता से हुआ है । परन्तु ये सारे तत्व जहाँ भी समावेशित हुये हैं, वहाँ वे पात्रों के अंतर की विवृति करते प्रतीत होते हैं । यही कारण है कि जैनेन्द्र के पात्र बाह्य वातावरण और परिस्थितियों से प्रभावित लगते हैं और अपनी अंतर्मुखी गतियों से संचालित । उनकी प्रतिक्रियायें और व्यवहार भी प्रायः इन्हीं गतियों के अनुरूप होता है । इसी