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________________ जैनेन्द्र जी का जयवर्धन चिन्तन की नीका के लिये उन्होंने गाँधी के ध्र व-तारक को आधार मान और सब आधार छोड़ दिये हैं । यों अ-विशिष्ट-सा उनका जीवन है--क्रिया के क्षेत्र में, सफलता की दिशा में शून्य, परन्तु चिन्तन के क्षेत्र में उतना ही क्रियाशील । जैनेन्द्र कुमार : साहित्यिक कृतित्व १. निबन्धकार यों व्यक्ति जैनेन्द्र की सहजशालीन, सरल, मिलनसार, अन्तर्मुखी मूर्ति से हम लेखक जैनेन्द्र को भिन्न नहीं पाते । बल्कि दोनों एकाकार हैं, यही उनकी विशेषता है । लेखक जैनेन्द्र कई तरह से हमारे सामने आते हैं : प्रश्नोत्तर-कर्ता, वक्ता, चिन्तक, दार्शनिक, निबन्धकार, कहानीकार, उपन्यासकार । उनमें से पहला रूप वाड्मय का, यानी बोले हुये श द का है, लिखे हुये शब्द का कम । अतः उसे अत्यन्त मार्मिक और चुटीला होने पर भी हम यहाँ इस प्रसंग में छोड़ देंगे । दार्शनिक जैनेन्द्र के बारे में कई मत-भेद हैं । कोई उन्हें अनेकान्तवादी मानते हैं और कई सर्वोदयी; कोई उनकी दार्शनिकता को केवल एक ऊपर से अोढ़ा हुआ मुखोश (मास्क) मानते हैं। परन्तु यह सही है कि उनका स्वभाव चिन्तनशील अधिक है, वृथा-भावुक कम है, और वे सदा समस्याओं के मूलाधारों के अन्वेषण में लगे रहते हैं, यह सभी मानते हैं । 'अज्ञेय' ने अंग्रेजी त्यागपत्र की भूमिका में लिखा कि जनेन्द्र 'आध्यात्मिक अदूरदर्शिता (स्पिरिचुअल मायोपिया) से पीड़ित हैं ।' शब्दों में खोना या उनके सजाव-सिंगार में रस लेना उन्हें कभी नहीं भाया। बल्कि 'होने' की समस्या के आगे 'हो सकने' की कमजोरी को भी वह भूल गये । 'होना चाहिए' और 'है' कि बीच का व्यवधान कम से कम करने की ओर उनका सारा विचार और लेखन लगा है। २. कहानीकार वैसे सर्वसाधारण पाठक उन्हें गम्भीर या प्रसन्न निबन्धकार की अपेक्षा कहानी लेखक के नाते विशेष जानते हैं । उनकी कुछ कहानियाँ, जैसे वह है या तत्सत्, साधु की हठ, पत्नी, एक रात, मास्टर जी, अपना-पराया आदि, जो सदैव याद रक्खी जायेंगी। जीवन की साधारण घटनाओं को या मनोवैज्ञानिक गुत्थियों को लेकर वे उस क्षेत्र में पहुँच जाते हैं जिसे आदि-कथा के नित्य-रस का क्षेत्र कह सकते हैं : नीलम देश की राजकन्या, परदेशी, बाहुबली आदि उनकी ऐसी कहानियाँ हैं । वह चाहते तो रूपक-कथाएँ और 'फेबल्स' भी बहुत अच्छी लिखते । भारतीय कथा का मूल उत्सव ही है जो पंचतंत्र, जातक कथाएँ, लोक-कथाएँ। वहाँ देश-काल की सीमाएँ क्षीणतर हैं । पक्षी, पशु, पेड़, नदी, पहाड़ भी बोलते हैं, और मनुष्य जैसे बहुत क्षुद्र लग आता है उस विराट् सृष्टि के परिप्रेक्ष्य में । वह है भी नगण्य । यदि श्रेष्ठ है तो केवल आत्म-शक्ति के कारण !
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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