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जैनेन्द्र के जयवर्द्धन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २४६ विकास का दिशा-सौष्ठव वह ग्रहण नहीं करता । जयन्त का व्यतीतवाद व्यक्तिमत्ताप्रसूस दिशाहीनता है, व्यक्तिमत्ताप्रसूत दिशाहीनता का व्यतीतवाद है । जयंत में व्यक्ति-सत्य से ज्यादा पौरुषहीन व्यक्ति के परिधिवाद की दिशाहीनता का सत्य है, व्यक्ति का दिशा-लघुत्व है, दिशा-बोध का पालोक दर्शन नहीं, व्यक्ति का जयंत है।
जैनेन्द्र का दिशा-बोध 'व्यतीत' में स्खलित हो गया है। जैनेन्द्र के दिशाबोध ने व्यक्ति-सत्य के साथ 'व्यतीत' में विश्वासघात किया है । व्यक्ति का जयन्तवाद 'त्यागपत्र' उपन्यास के प्रमोद से भिन्न है । जयन्त के विपरीत प्रमोद में व्यक्तिमत्ता की एकान्त और जीवनमयी मामिकता है। जयन्त में प्रमोद की मार्मिकता नहीं है। 'व्यतीत' की चारित्रिकता की जयन्त-परिसमाप्ति और 'त्याग-पत्र' के प्रमोद त्यागपत्र में भिन्नता है।
प्रमोद के त्यागपत्र में मृणाल के प्रति उसकी पारिवारिक सामाजिकता से प्रच्छन्न कामजन्य पिपासा की प्रतिक्रिया है। प्रमोद की मृणाल ग्रन्थि की प्रतिक्रिया है। जयन्त की जयन्त-परिसमाप्ति में व्यक्ति और समष्टि की सम्पूर्ण व्यक्तिमत्ता का प्रसामाजिक संकलन है। मैं व्यक्तिमत्ता की अवहेलना नहीं करता। करनी भी नहीं चाहिये । किन्तु व्यक्तिमत्ता का जयन्तवाद किसी की सुविधा के हेतु नहीं रहना चाहता। व्यक्तिमत्ता को जैनेन्द्र ने 'व्यतीत' में स्खलनोपरान्त शैथिल्य के वातावरण में पारोपित किया है। जयन्त-शैथिल्य के मूल में जैनेन्द्र के व्यक्तिबोध की मुद्रास्फीति है। मैं इसे व्यक्ति-स्फीति कहूँगा । 'व्यतीत' की व्यक्ति-स्फीति में व्यक्तिमत्ता का व्यतीतवाद है । भ्रष्ट व्यक्तिमत्ता है। 'व्यतीत' का व्यक्ति शैथिल्य नारी के प्रति अपराधी है । अनिता, चन्द्रकला आदि के प्रति व्यक्तिपरक अपराध व्यतीतवाद और जैनेन्द्रवादी 'व्यतीत' के प्रति हमारी सम्पूर्ण सहानुभूति खो देता है । 'व्यतीत' जैनेन्द्र के दिवालियापन का सबूत है । जयन्त के प्रति अनिता-संवेदन नारी के व्यवितप्रवृति प्रवण परिग्रह का परिचायक है । जयन्त की अनिता-अबला व्यक्ति शंथिल्य, व्यक्तिमत्ता की व्यक्तिहीनता, व्यक्तिमत्ता की व्यक्तिहीन असामाजिकता, व्यक्तिसंवेदन के स्खलन-शैथिल्य का परिचायक है । जयन्त में व्यक्ति नहीं रहता। व्यक्ति के रहने का अभिनय होता है।
जयन्त में समाज नहीं है । समाज जयन्त में नहीं है ।
जयन्त में व्यक्ति का समाज नहीं होता, व्यक्ति के समाज का सम्मोहन का विसर्जन होता है । व्यक्ति के समाज-सम्मोहन के जयन्तपरक प्रस्तुतीकरण द्वारा जैनेन्द्र ने व्यक्ति को एक अस्वाभाविक वातावरण में, जयन्त-वातावरण में, प्रारोपित किया है।
'व्यतीत' के जयन्त अथवा व्यतीत-चिन्तन में व्यक्तिबोध-सौष्ठव, व्यक्ति बोध