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________________ se जीवन के एक विशिष्ट कलाकार को प्रेम के पर्दे में छिपाना चाहती है, पर उसका प्रेम छल और प्रतारणा की रेत पर सिर धुन कर रह जाता है । यहाँ मानव मन की कितनी बड़ी विवशता है ! श्री जैनेन्द्र जी की दृष्टि में आदमी का मन भी अपना पूरा नहीं हुआ करता। श्री जैनेन्द्र जी खुद कहते हैं कि धन मेरा नहीं है, मन कुछ मेरा है।। इनके पात्र वासना की पुकार को स्वीकार करते हुए भी इससे ऊपर उठने की कोशिश करते हैं। श्री जैनेन्द्र जी के एक ही नारी पात्र को जब हम टटोल कर निरखते हैं तो पाते हैं कि उस एक ही नारी विशेष के हृदय में विश्व का सम्पूर्ण नारी-हृदय अपनी असीम सुषमा, अपार करुणा, अथाह प्रेम एवं अलौकिक त्याग, तपस्या और सेवा की मधुर भावना से संचालित हो धड़क रहा है। यहाँ श्री जैनेन्द्रजी की आत्मनिष्ठा, उनकी आत्मा विश्वात्मा में परिवर्तित हो उठती है, जिर.के सार्वभौम रूप पर-उसके हास्य-रुदन की कलात्मक रुनझुन के रसात्मक सम परविश्व-हृदय के तार झंकृत हो उठते हैं। श्री जैनेन्द्र जी की सुनीता सबकी सुनीता बन जाती है और हरि प्रसन्न के मन-सिन्धु में लहराती वासना का असह्य उफान समस्त मानव-मन की नाचती हुई वासना-नर्तकी का वह नग्न चलचित्र है, जहाँ कलाकार केवल कला-स्रष्टा मात्र ही न रहकर जीवन-सत्य का एक निरपेक्ष दार्शनिक द्रष्टा बन बैठता है । यहाँ हम श्री जैनेन्द्र जी में एक महान् कलाकार और एक सफल दार्शनिक के दोहरे व्यक्तित्व का प्लाटिनम धातु की तरह निरपेक्ष निर्वाह पाते हैं । "तुलसी की सीता, शेक्सपियर की डेस्डीमोना और श्री जैनेन्द्र जी की सुनीता एक ही सितार के तीन ऐसे तार हैं, जिनमें जीवन-सत्य का एक ही राग शाश्वत रूप से लहरा रहा है । महान् कलाकार की भावाभिव्यक्ति जीवन और जगत् की अभिव्यक्ति का एक पूर्ण माध्यम हुआ करती है । इस दृष्टि से श्री जैनेन्द्र जी जीवन के एक विशिष्ट कलाकार हैं। हाँ, श्री जैनेन्द्र जी की एक अपनी शैली भी है जो उनकी लेखनी के निखार में चार चाँद लगा देती है। वह मनोवैज्ञानिक कथाकार ही नहीं, एक कलात्मक शैलीकार भी हैं और एक-एक का जवाब है, दोनों हैं लाजवाब !
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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