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________________ जैनेन्द्र के जयवर्सन-पूर्व उपन्यास : एक पर्यवेक्षण २३१ पत्र के प्रारम्भ में वर्णित मास्टर जी के प्रसंग में विपुल अन्तर है। 'त्यागपत्र' में बाल-मनोविज्ञान का अच्छा चित्रण है । 'त्यागपत्र' मूलतः मनोविज्ञान से ज्यादा से ज्यादा सम्बन्ध रखने वाली हिन्दी की बहुमूल्य कृति है । प्रमोद का मृणाल-पाकर्षण और मृणाल का प्रमोद-पाकर्षण ! 'त्यागपत्र' के द्विमुखी पाकर्षण का जीवन है-समाज-सम्बन्ध का वर्गीकरण मूलप्रवृत्ति वाद की अवहेलना नहीं कर सकता । 'त्यागपत्र' वरिणत मृणालपरक प्रमोद-पाकर्षण प्रच्छन्न वासना का इन्द्र धनुष है। ....... उस रोज रात को वह मुझे बहुत देर तक अपने से चिपटाये रहीं। पूछने लगी-'प्रमोद ! तू मुझे प्यार करता है ?" सुनकर बिना कुछ बोले मैंने अपना मुह उनकी छाती के घोंसले में और दुबका लिया। इस पर वह बोलीं'प्रमोद, मैं तुझे बहुत प्यार करती हूँ।" यह प्यार नहीं, मृणाल की कामुकता है । यहाँ पर भारतीय मर्यादावाद का उल्लंघन हुआ है । अपने भाई के ही पुत्र, जो उसका हमउम्र है, के साथ यह व्यवहार मर्यादावादियों को निस्सन्देह मान्य नहीं होगा, नहीं होगा। बहधा पति के नेतृत्व में जनेन्द्र की नारी का अंध-विश्वास होता है। 'सुखदा' इस क्षेत्र में एक स्पष्ट अपवाद अवश्य है । मृणाल को विश्वास है कि पति का घर स्वर्ग होता है, किन्तु पति का घर उसके लिए स्वर्ग नहीं सिद्ध हो पाता। 'कल्याणी' की नायिका को विश्वास है कि पति का घर स्वर्ग होता है, किन्तु पति का घर उसके लिए भी स्वर्ग सिद्ध नहीं हो पाता । 'सुखदा' की नायिका के लिए पति का घर स्वर्ग नहीं सिद्ध हो पाता । 'सुनीता' अपवाद अवश्य है । त्यागपत्र' की नारी वेश्या नहीं, उसने वेश्यावृत्ति नहीं की। त्यागपत्र-नारी के अभिव्यक्तिवाद के शब्दों में "..... "जिसको तन दिया, उससे पैसा कैसे लिया जा सकता है, यह मेरी समझ में नहीं पाता । तन देने की जरूरत मैं समझ सकती हूँ। तन दे सकूगी । शायद वह अनिवार्य हो । पर लेना कैसे ? दान स्त्री का धर्म है। नहीं तो उसका और क्या धर्म है ? उससे मन माँगा जायगा, तन भी मांगा जायगा। सती का आदर्श और क्या है ? पर उसकी बिक्रीन, न, यह न होगा ।" त्यागपत्रनारी का जीवन-दर्शन त्यागपत्र नारी के ही शब्दों में अभिव्यक्त हुआ है। मृणाल भ्रम के प्रति सदय है । भ्रम के प्रति मृणाल का सदय होना शायद दायित्व-कृतज्ञता है। पति-भ्रम के व्यक्ति के लिए मृणाल का यह कथन है-"मैं उसे उसके परिवार को लौटा कर ही मानूंगी । अब समय पाया है ....." इसी व्यक्ति पर मृणाल आश्रित
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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