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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व जीवन-गरिमा की समाप्ति हो जायगी।
पुरुष का श्रीकान्त कहता है-“हम लोग दुर्गम पथ से दूर हटकर सुगम राह पकड़कर चल रहे हैं तो क्या उस पथ के पथिक को समझना जानते हैं । हरी, घबड़ाना नहीं। हम टूटे तो टूटें, पर तुम मत झुकना, निर्मम रहना, बढ़ते रहना ।"
हरिप्रसन्न और श्रीकान्त पुरुष को पूर्ण करते हैं। श्रीकान्त दुर्गम पथ का पथिक नहीं, वह सहज मार्ग का अवलम्बन करता है, किन्तु दुर्गम पथ के पथिक को समझना जानता है । "हम टूटें तो टूटें, पर तुम मत झुकना, निर्मम रहना, बढ़ते रहना"-इस प्रेरणाभरी और जीवनमयी अभिव्यक्ति-गरिमा के द्वारा उपन्यास का उत्तरार्द और हरिप्रसन्न-उत्तरार्द्ध के रूप और कार्य, अप्रत्यक्ष रूप से, निर्देशित होते हैं।
हरिप्रसन्न भागने का हृदय-परिवर्तन और समुज्ज्वल शुद्धिकरण संस्कार सम्पन्न करता है।
वह अपने से भागना नहीं चाहता, अपने से निकल चलना चाहता है। संभव है कि हरिप्रसन्न के भागने की तैयारी अपने से निकल चलने की ही भूमिका हो, क्योंकि लाखों मोहताज हैं, त्रस्त हैं, उनके दुःख की तौल हो सकती है ? वह दुःख घर में बैठकर कैसे मालूम हो ? वह दुःख क्या उनका ही है जिनको मिल रहा है ? क्या तुम और हम निर्दोष की भांति अलग रह पावें ? क्या हम समझे कि उसकी आँच हमें तो लगती नहीं, तब हमें क्या ? पर यह गलत है। बाहर भाँच हो तब कोठरी में अपने को मूंद लेने में बचाव नहीं होगा। आँख मूद लेना काफी नहीं है।
अतएव हरिप्रसन्न सुनीता से वही चाहता है जो अपने से चाहता है । वह अपने से बहुत चाहता है-उसके अपने से चाहने में ही समाजबोध का जीवन-वैभव है, समाजबोध का बुद्धत्व भी। तथाकथित व्यक्तिवाद के नाम पर जैनेन्द्र की व्यक्तितात्त्विकता का समुचित आदर नहीं किया गया । व्यक्ति-तात्त्विकता में जैनेन्द्र ने समाजबोध का समष्टि-सत्य अभिव्यक्त किया है । जैनेन्द्र के समाज-बोध के समष्टि-सत्य की जीवन-प्रक्रिया और कला-प्रक्रिया के मूल्यांकन की बड़ी आवश्यकता है । जैनेन्द्र ने समष्टिगत समाज-बोध और समाज-सत्य को व्यक्ति-प्रान्तरिकता और व्यक्तितात्त्विकता के खंड चित्रों में निरूपित किया है।
पिंड में ब्रह्मांड का दिग्दर्शन करने वाले जैनेन्द्र ने समष्टि-सस्य को व्यक्तिसत्य की तात्त्विकता में समाहित कर दिया है । जैनेन्द्र-निरूपित व्यक्ति-सत्य की तात्त्विकता में समष्टि-निष्ठा की जागरूकता है, समरिट-निष्ठा का जागरूक जीवन; जैनेन्द्र-निरूपित व्यक्ति-बोध और व्यक्ति-सत्य संवेदनात्मक आदर्श के दृष्टिकोण से