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जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व में एक साथ दोनों की सत्ता कैसे स्वीकार की जा सकती है ? रुकना अर्थात ठहराव
और चलना को एक ही साथ कैसे ग्रहण किया जा सकता है, मैं नहीं जानता । शायद केवल जैनेन्द्र जी ही जानते होंगे । रुकना और चलना को हम यहाँ विराट अर्थों में ले रहे हैं। क्या जैनेन्द्र ने रकना और चलना को विराट अर्थो में, जीवन के अर्थों में एक दूसरे को पूरक सिद्ध करने का प्रयत्न किया है ? तव जैनेन्द्र के भाग्यवाद के सम्बन्ध में पुनः उलझनें बढ़ेंगी । 'जीवन नाम चलने का है' सिद्धान्त 'कल्याणी' में भी प्रतिपादित किया गया है, किन्तु 'कल्याणी'---- परिसमाप्ति का 'मुझे रहना है' सिद्धान्त जीवनवाद उपस्थित करता है, जीवन नहीं । जनेन्द्र-साहित्य का ज्यादा समय जीवन की अपेक्षा जीवनवाद में उलझ गया है, जीवन के सिद्धान्त-खंडों में उलझ गया है।
सुनीता जैनेन्द्र का उपलब्धिवाद है । सुनीता उपन्यास 'सुनीता' की नायिका है । सनीता का नारी-दर्शन मौलिक दृष्टिकोणों की बौद्धिकता और संवेदना प्रदान करता है । सुनीता का जीवन-दर्शन अर्थात् नारी का सुनीतावाद अर्थात् 'सुनीता' की नारी का जीवनदर्शन पलायनवाद नहीं है, सुनीतावादी जीवन-दर्शन नारी की सत्ता जीवन के जीवन में स्वीकार करता है । भागना को सुनीता-दर्शन जिन्दगी के खिलाफ मानता है। हम अपने से नहीं भाग सकते । तब भागने का क्या अर्थ हुआ ? हम अपने को नहीं रोक सकते । हमारे अाधारभूत निजत्व पर हमारा अधिकार नहीं । व्यक्ति आधारभूत निजत्व के जीवन-प्रवाह को स्थगित और स्तम्भित नहीं कर सकता। और भी, सुनीता
जीवन में युद्ध-स्तर पर संघर्ष करता है। बड़े अर्थों में भागना जीवन में असंभव है। बाहर से भागना अपने से भागना नहीं है । अपने से भागना ही अन्दर से भागना है। हम बाहर से भाग सकते हैं, पर अपने से भागना जीवन में चल नहीं सकता । जिन्दगी भागना नहीं है । भागने की प्रान्तरिकता जीवन में नहीं आती। भागने की सम्पूर्णता को जैनेन्द्र ने जीवन-विरोध और चलने के सम्यक् सम्पूर्णत्व को जीवनसामंजस्य के रूप में स्वीकार किया है ।
जैनेन्द्र जीवन में चलना चाहते हैं। चलते भी हैं, जीवन में भागते नहीं। जीवन से भागना नहीं चाहते । चलना जिन्दगी में है, जिन्दगी है । रुकना मौत है । सच्चा भागना हो नहीं सकता। बाहर से भागकर हम अपने से तो नहीं भाग सकते । भागना जीवन का विरोध है । चलना, रुकना और भागना जैनेन्द्र के शब्दत्रयी हैं। मष्टि का सत्य इन्हीं तीनों शब्दों में संचित है । जीवन के समस्त इतिहास को जैनेन्द्र ने केवल तीन शब्दों में अर्थात् चलना, रुकना, भागना में ही उद्घोषित कर दिया है।
जब हम अपने से नहीं भाग सकते, अपने को रोक नहीं सकते तब भागने का