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________________ ------- ." Aan १६२ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व समाजवादी प्रादि) औपन्यासिकों के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी हैं । प्रेमचन्द जैसा जीवन से गहरा सम्पर्क तो जनेन्द्र में है ही, अत्याधुनिक औपन्यासिकों की विश्लेषणात्मक गहराई और तटस्थता भी उनमें है । अत्याधुनिक औपन्यासिकों को अनुभूति से अधिक पुस्तकीय ज्ञान का सहारा है, मनुष्य से अधिक सूत्रों और सिद्धान्तों में विश्वास है । लेकिन जनेन्द्र इनके इन गुणों को नहीं ग्रहण कर सके हैं । जनेन्द्र की प्रेरणा का आधार वैचित्र्य और वैविध्य से पूर्ण जीवन ही रहा है, आर्ट पेपर पर छपी हुई सुनहली जिल्दवाली पुस्तकों का मोह उन्हें कभी न रहा । यह चीज उन्हें प्रेमचन्द से विरासत में मिली है । 'गोदान' तक आते-पाते प्रेमचन्द की दृष्टि सिद्धान्त से हटकर पूर्णतया मनुष्य पर जा टिकी थी। प्रेमचन्द की व्यापकता और विस्तार जैनेन्द्र में प्रा कर घना और गहरा हो गया है। प्रथम श्रेणी की प्रतिभा सदा जीवन से सीधे प्रेरणा ग्रहण करती आई है। निर्मित वस्तु से निर्माण के लिए ली गई प्रेरणा से मध्यम श्रेणी की वस्तु का ही निर्माण संभव है । इसका यह अर्थ नहीं कि ऐसे व्यक्ति पुस्तकीय ज्ञान से लाभ नहीं उठाते । पर ऐसों के लिए पुस्तकें जब-तब व्यवहार में आने वाले शब्दकोष का काम करती हैं, प्राधार-ग्रन्थ का नहीं । कुछ आश्चर्य नहीं यदि सस्ते 'नोटों' के इस युग में मूल ग्रंथों की मांग कम हो गई हो, अनुभूति की अपेक्षा कल्पना (fancy) को. प्रमाणपत्र मिल रहा हो ! जैनेन्द्र ने समाज को सिर्फ देखने और उसमें पैठने का ही प्रयत्न नहीं किया है, बल्कि अनुभूत सत्य के सार को ग्रहण कर उस पर चिन्तन भी किया है, सामने पाई समस्याओं के मूल की भी खोज की है । यही जैनेन्द्र की मौलिकता है। यह मौलिकता ही उन्हें दुर्बोध (जैसा कुछ आलोचकों का आक्षेप है) बना देती है, क्योंकि मौलिकता हमारे आलोचकों की नजर में सबसे बड़ा अपराध है ! यदि जैनेन्द्र जी कोई घोषणापत्र प्रकाशित कर दें, तो ऐसे आलोचकों को सन्तोष होगा। जैनेन्द्र की ये लब्धियां साधारण नहीं हैं । उनकी उल्लेखनीय त्रुटि एक ही है-जिसे किसी अधिक उपयुक्त शब्द के अभाव में मैं 'हिचक' कहता है । जैनेन्द्र ने जिन समस्याओं को अपने हाथ में लिया है, वे यद्यपि नैतिक हैं, फिर भी नीतिवादी प्रकट रूप से अपने को उनसे बचाते रहे हैं । नैतिक वातावरण में पले जैनेन्द्र को भी थोड़ा संकोच है ही—यद्यपि उनका कलाकार उन्हें चुप बैठने नहीं देता। संकोच की क्षीण छाया उनके चिन्तन और उनकी कला-दोनों पर है । इसीलिये उनकी कला का पूर्ण और निखरा हुआ रूप शायद भविष्य के गर्भ में है। ___क्या जैनेन्द्र मौन भंग करेंगे ? रहस्यमयता को प्रश्रय देने के लिये नहीं, उसके आवरण को हटा कर प्रकाश की किरणें बिखेरने के लिये ।
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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