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जैनेन्द्र कुमार का कथा-साहित्य
१८५ “अपना-अपना भाग्य' जैसी रचनाओं में भाग्यवाद पर विश्वास प्रकट है, परंतु मेरे मतानुसार ऐसी रचनाएँ मर्म छुने की शक्ति से हीन हैं । “अपना-अपना भाग्य': ही देखें । यद्यपि इसका अन्त दुखान्त है, फिर भी करुणा की शक्ति इसमें कुठित लगती है। पाठक का मन उससे मर्माहत नहीं होता । ऐसी रचनाओं में जैनेन्द्र सफल नहीं हो सके हैं—मेरी तो ऐसी ही धारणा है। मतव्य और उद्देश्य की अस्पष्टता के कारण उनकी कुछ कहानियां पहेली-सी लगती हैं । उदाहरणार्थ नीलम देश की राजकुमारी, समाप्ति, मौत और..'प्रादि कहानियाँ हैं । यदि जैनेन्द्रजी दार्शनिकता के व्यामोह को छोड़कर साधारण जीवन के धरातल पर अपने विचारों की अभिव्यक्ति करें तो उनकी कला अधिक जीवंत और प्रभावपूर्ण हो जाय ।