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________________ १८४ जैनेन्द्र : व्यक्तित्व और कृतित्व की शिला कहानी के सुघर गले में बाँध दी है, जिससे उसका स्वरूप विकृत हो गया है । उदाहरणार्थं "नीलम देश की राज कन्या," "समाप्ति", "मौत और..." श्रादि कहानियों को देखा जा सकता है । यों उनकी वे कहानियाँ जो इस दुर्गुण से मुक्त रह् रुकी हैं, काफी सपल उतरी हैं । पत्नी, एक गो, सजा, रुकिया बुढ़िया श्रावि रचना को इस दृष्टि से देख सकते हैं । ऐसी कहानियाँ पाठकों के मर्म को स्पर्श करती हैं, चिन्तन की प्रवृत्ति को उन्मुक्त करती हैं । जैनेन्द्र का साहित्य श्रद्धा और विश्वास के संयोग पर जोड़ डालता है । उन्होंने स्वयं लिखा है, "मुझे इसमें भी बहुत सन्देह है कि जिसको श्रद्धा का संयोग प्राप्त नहीं है, वह बुद्धि कुछ भी फल उत्पन्न कर सकती है. बुद्धि अपने आप में बंध्य है ।" ( मन्थन - पृष्ठ १६ ) श्रद्धा की क्रिया महत्त्ववान है जो मुक्ति के विराट मार्ग की प्रोर अग्रसर करा देती है - अपनी बुद्धि के भीतर रत रहने से जैसे हम ह्रस्व होते हैं, उसी भाँति श्रद्धापूर्वक विराट सत्ता के प्रति समर्पित रहने से हम मुक्ति की ओर बढ़ते हैं । इसी तत्त्व की श्रोर उन्होंने 'एक गौ', 'सजा' आदि में संकेत किया है। श्रद्धा के प्रभाव में ही 'अपना-पराया' में फौजी अफसर घृणास्पद प्राचरण प्रस्तुत करता है । श्रद्धा के व्यापक प्रसार में, बुद्धि को उसके द्वारा सन्तुलित करने में प्रान्तरिक सुख का प्रकटीकरण होता है, जीवन को सही दिशा मिलती है अन्यथा वह अंधकाराच्छन्न जंगल में भटकता श्रान्तरिक शान्ति और उल्लास खो देता है । अज्ञेय श्रौर जैनेन्द्र का अन्तर इस आधार पर समझा जा सकता है । जैनेन्द्र सौन्दर्य की महत्ता स्वीकार करते हैं— 'सौन्दर्य परम सत्य है, परम सत्य की भिन्न विभूति है, सत्य की भाँति सब ठौर व्यापा है । ( रुकिया बुढ़िया) परन्तु वह यह भी मानता है – 'हरेक सुन्दरता ज़रूरत से अधिक पास ले लेने पर और फिर प्रसत हो जायेगी । ' ( मन्थन, पृष्ठ २१ ) इसीलिए तो रुकिया का असुन्दर गहराई युक्त प्रेम सारहीन सिद्ध हो जाता है । रूप की निकटता से रूप के श्राकर्षरण का विपरीत आयाम भी उभर कर सम्मुख श्राने लगता है । तब मनुष्य का उल्लास शनैः शनैः समाप्त' होने लगता है । सत्य की प्रक्रिया जो भी हो, परन्तु मनुष्य रूप को प्रत्यधिक समीप लाने के लिए प्रयत्नशील रहता ही है । मनुष्य की इस स्वाभाविक प्रवृत्ति हम इन्कार नहीं कर सकते । जैनेन्द्र के सामान्य पात्र भी इससे मुक्त नहीं दीख पड़ते । रुकिया के प्रेमी को भी इस दृष्टि से देख सकते हैं । प्रेम को स्वतः उन्होंने अत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना है जो अपनी गरिमा से उत्कर्षयुक्त रहता है, परन्तु सामीप्य की उत्कंठा से किसी भी प्रकार निर्लिप्त नहीं रहा जा सकता । इसीलिए तो उनके चरित्र और उनके विचार में यत्र-तत्र विरोध होता दीख पड़ता है । 1
SR No.010371
Book TitleJainendra Vyaktitva aur Krutitva
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSatyaprakash Milind
PublisherSurya Prakashan Delhi
Publication Year1963
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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