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भाई साहब और में
१५१ 'दुनियां ऐसा कहती है, दुनियां में ऐसा होता आया है'. 'ये वाक्य जैनेन्द्रजी के अन्तर्मानस में शायद रमते नहीं। एक बार एक उच्चकोटि के साहित्यकार से जैनेन्द्रजी की चर्चा छिड़ गई । उनका स्पष्ट मत था कि जैनेन्द्र में 'ईगो' बहुत है। मैंने हर दृष्टिकोण से इस बात को परखने की कोशिश की है। मुझे ऐसा लगता है कि भाई साहिब के अन्तर की ईमानदारी को भी लोग गलत समझ बैठते हैं। कुछ सामाजिक विभीषिकात्रों ने उन्हें सहमा दिया है और उनमें समाज की झूठी मर्यादानों को पालने की क्षमता लगभग शेष नहीं रही है । जीवन की वास्तविकताओं को वे अपने ही दृष्टिकोण से समभाना और परखना चाहते हैं । माधुर्य और गति दोनों के समन्वय की मांग भी जैनेन्द्रजी से प्राध्यात्मिकता का त्याग नहीं करा सकतीं। अभावग्रस्त और दूषित समाज पर प्रहार करते जनेन्द्र डरते बिल्कुल भी नहीं हैं।
मझे कई बार ऐसा लगता है कि जैनेन्द्र स्वयं एक समस्या हैं और जब वे अपने दार्शनिक विचारों का प्रकाशन करते हैं तो अनेक व्यक्ति उनकी दुरुहता के कारण उपहास तक कर बैठते हैं । हां, यह अवश्य है कि समस्याओं के समाधान में वे नीचे इतने उतर जाते हैं कि वे शायद यह भी भूल बैठते हैं कि उनके लेखों को पढ़ने वाला पाठक उनको दुरूह देखकर उसके उल्टे अर्थ भी लगा बैठेगा। अभी उस दिन की ही तो बात है; भाई साहिब से सरकार की हिन्दी नीति की चर्चा छिड़ गई । 'मैं उनकी हजार गलतियों को क्यों देखू, जब मुझमें स्वयं ही चार हजार गलतियाँ भरी पड़ी हैं ।' कितनी महान् स्वीकारोक्ति है, जिसमें उनके व्यक्तित्व की महानता व्यक्त होती है।
जैनेन्द्र जी में कोई भी दुराव-छिपाव है ही नहीं । वे स्वयं अनेक बार अपने निकम्मेपन और प्रमाद की दुहाई देते पाये गये हैं, पर मैं यह समझता है कि यह उनका भ्रम ही है, क्योंकि वे तो द्रुतगति से आगे बढ़ते चले जा रहे हैं। नित्य प्रति उनकी नई कृतियाँ पा रही हैं और 'समय और हम' ने तो हिन्दी भाषा में निश्चय ही एक नया अध्याय खोल दिया है।
भाई साहिब से घरेलू मसलों पर जब-जब बातें होती हैं, वे खुलकर अपनी राय देते हैं और अधिकांश उनकी राय चाहे दुनियादारों को अटपटी-सी लगे, पर अन्ततः होगी बिल्कुल सच्ची ही।
"इफस एंड बट्स" लगता है, उन्हें लगाने ही नहीं आते । यही उनकी व्यावहारिक अकुशलता है ।
कई बार मैंने देखा है कि जैनेन्द्रजी में अटूट प्यार भरा पड़ा है, लेकिन घर वाले बाबूजी' से बहुत डरते से हैं । बात यह है कि उन्हें किसी परिस्थिति को स्वीकार कराने के लिये बाध्य कर सकना किसी के लिये भी संभव नहीं है। अपने राम तो