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________________ ६४ आत्मा को पौद्गलिक कर्म भी निमित्त मात्र { सहायक मात्र ) हुआ करते हैं। स्वय आचार्य कुन्दकुन्द ने भी समयसार के कर्तृ कर्माधिकार मे यही लिखा है- "जीवपरिणामहेदु कम्मत्त पुग्गला परिणमति । पुग्गलकम्मणिमित्त तहेव जोयो वि परिणमइ ।। ण विवइ कम्मगरणे जीवो कम्मा तहेव जीवगरो। अण्णोपणरिणमित्रोण दु परिणाम जाण दोहपि ।।", अर्थ-जीव के परिणामो का निमित्त (सहयोग) पाकर पुद्गल कर्मरूप परिणत होते हैं और पुद्गल कर्मों का निमित्त (सहयोग) पाकर जीव रागादि रूप परिणत होता है । जीव पुदगल मे कर्मरूप से परिणत होने की योग्यता को उत्पन्न नहीं करता और इसी तरह कर्म भी जीव मे रागादिरूप से परिणत होने की योग्यता उत्पन्न नही करता केवल उस उस प्रकार की स्वाभाविक योग्यता सम्पन्न दोनो वे परिणाम एक दूसरे के निमित्त (सहयोग) से हुआ करते हैं। इस प्रकार इन सब उद्धरणो के आधार पर यह निर्णीत हो जाता है कि प० फूलचन्द्रजी समयसार की उक्त ३७२ वी गाथा मे पठित “सहावेण" पद का जो यह अर्थ ग्रहण करना चाहते है कि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन स्वभाव से अर्थात् निमित्तो की सहायता की अपेक्षा के बिना अपने आप ही हुआ करता है सो यह उनका मिथ्या प्रयास है । क्योकि उक्त उद्धरणो से उपादानभूत वस्तु के परिणमन मे निमित्तभूत वस्तु के सहयोग का निषेध नही होता है प्रत्युत उसका तो समर्थन ही होता है बात सिर्फ इतनी है कि कोई भी परिणमन उपादान की स्वभावगत
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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