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अर्थ-बहिरग निमित्तभूत कुम्भकारादि अन्य द्रव्य द्वारा उपादानभूत मृत्तिका आदि अन्य द्रव्य का चेतन का अचेतनरूप से और अचेतन का चेतन रूप से गुणघात क्योकि नही किया जाता है अत. क रूप मृत्तिका आदि सम्पूर्ण द्रव्य घटादिरूप से उत्पन्न होते हुए अपने उपादानकारण मृत्तिका आदिरूप ही उत्पन्न होते है कुम्भकार आदि बहिरग निमित्तरूप नही उत्पन्न होते है । क्योकि "उपादानसदृश ही कार्य उत्पन्न होता है" यह नियम है। इससे यह सिद्ध होता है कि पाचो इन्द्रियो के विषयभूत'शब्दादि निमित्तो के सहयोग से यद्यपि अज्ञानी जीव के रागादि उत्पन्न होते है तो भी वे रागादि जीवरूप से चेतन ही होते है शब्दादिरूप से अचेतन नही होते है।
इसमे इस बात का स्पष्ट उल्लेख है कि कार्य तो उपादानरूप ही उत्पन्न होता है परन्तु वह निमित्तो के सहयोग से ही उत्पन्न होता है।
श्री आचार्य अमृतचन्द ने भी पुरुषार्थसिद्ध्युपाय ग्रन्थ मे निम्न गाथाओ द्वारा उक्त अर्थ की पुष्टि की है"जीव कृत परिणाम निमित्त मात्र प्रपद्य पुनरन्ये । स्वयमेव परिणमन्तेऽत्र पुद्गलाः कर्मभावेन ॥१२॥ परिणममानस्य चितश्चिदात्मकै स्वयमपि स्वकर्भावै । भवति हि निमित्तमात्र पौद्गलिक कर्म तस्यापि ॥१३॥"
इन गाथाओ मे बतलाया गया है कि जीव के परिणामो का मात्र निमित्त ( सहयोग ) पाकर अन्यद्रव्यरूपपुद्गल अपने स्वभाव के अनुसार ही कर्मरूप परिणत हो जाया करते है तथा इसी प्रकार अपने चिदात्मक भावो के रूप परिणत होने वाले