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रूपकार्य के जो स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष ऐसे दो भेद स्वीकार किये गये है इस दो भेदरूप स्वीकृति का क्या प्रयोजन रह जाता है ? क्योकि प० जी के मतानुसार वे दोनो ही परिणमन समान रूप से निमित्तो के सहयोग के बिना ही उत्पन्न हो सकते है।
__ वास्तविक बात यह है कि निमित्तो के सहयोग के विना स्वपरसापेक्ष कार्य की उत्पत्ति अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष, युक्ति और आगम के विरुद्ध है अत प० फूलचन्द्रजी की उक्त मान्यता मिथ्या ही मानी जायगी और ऐसी दशा मे उनकी यह मान्यता भी मिथ्या मानी जायगी कि कार्यात्पत्ति मे निमित अकिंचित्कर
श्री आचार्य जयसेन ने भी समयसार की उल्लिखित गाथा का अर्थ करते हुए अपनी तात्पर्य वृति टीका मे लिखा है"अण्णदविएण अण्णदवियस्स णो कीरदे गुण विधादो । तमा दु सम्वदव्वा उप्पज्जते सहावेण ॥"
टीका-अन्य द्रव्येण बहिरग निमित्तभूतेन कुम्भकारादिनाऽन्य द्रव्यस्योपादान रूपस्य मृत्तिकादेर्न क्रियते, स क ? चेतनस्याचेतनरूपेण, अचेतनस्यचेतनरूपेण वा चेतना चेतनगुणघातो विनाशो न क्रियते यस्मात् तस्मात् कारणात् मृत्तिकादिसर्वद्रव्याणि कर्तृणि घटादि रूपेण जायमानानि स्वकीयोप दानकारणेन मृत्तिकादिरूपेण जायन्ते न च कुम्भकारादिबहिरगनिमित्तरूपेण । कस्मादिति चेत्, उपादानकारणसदृश कार्य भवतीति यस्मात् । तेन किं सिद्धम् ? यद्यपि पचेन्द्रियविषयरूपेण शब्दादीना वहिरगनिमित्तभूतेनाज्ञानिजीवस्य रागादयो जायन्ते तथापि जीवरूपा एव चेतना न पुन शब्दादिरूपा अचेतना भवन्तीति भावार्थ. ।