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________________ ६५ योग्यता के अनुसार उस स्वभाव के दायरे में ही हुआ करता है उसमे अन्य द्रव्य तो केवल सहायक मात्र हुआ करता है। इसलिये उक्त गाथा ३७२ मे पठित 'सहावेण' पद का यही अर्थ ग्रहण करना चाहिये कि प्रत्येक द्रव्य का परिणमन उसके अपने स्वभावानुसार अर्थात् स्वभाव के दायरे मे ही हुआ करता है स्वभाव के अभाव मे अन्य निमित्तभूत द्रव्य अन्य उपादानभूत द्रव्य मे उस परिणमन को उत्पन्न कर देता हो अथवा उसमे उस परिणमन का स्वभाव उत्पन्न कर देता हो--ऐसी बात नही है। प० पूलचन्द्र जी पुरुषार्थसिद्ध्युपाय की उल्लिखित गाथाओ मे पठित 'स्वयमेव' और 'स्वयमपि' पदो का जो "निमित्तो की सहायता के विना अपने आप” अर्थ कर लेना चाहते हैं वह भी मिथ्या ही है क्योकि इन पदो का अर्थ वही है जो समयसार गाथा ३७२ मे पठित 'सहावेण' पद का होता है। यहा पर हम इतना और स्पष्ट कर देना चाहते है कि एक तरफ तो प० फूलचन्द्रजी ऊपर लिखे प्रकार स्वपरसापेक्षपरिणमन मे निमित्तो को अकिचित्कर सिद्ध करना चाहते है और दूसरी तरफ वस्तु के स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष परिणमन में काल की निमित्तता का समर्थन भी करते है। इस सम्बन्ध मे उन्होने 'जैनतत्त्वमीमासा' के पृष्ठ ४२ पर निम्नलिखित कथन किया है। “यदि प्रति समय पर्यायरूप से द्रव्य का जो परिणमन होता है फिर चाहे वह द्रव्य का शुद्ध परिणमन हो और चाहे द्रव्य का अशुद्ध परिणमन हो, उसके इस परिणमन मे कालद्रव्य निमित्त है।"
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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