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________________ ५.६ ततो अन्यत्ये मति तन्मयो भवति । ततो निमित्तनैमित्तिकमाव मात्रेणैव तत्र कर्तृ कर्मभोक्तृ भोग्यत्व व्यवहार ।" अर्थ - जिस प्रकार सुवर्णकारादि शिल्पी अपने से भिन्न परद्रव्यात्मक कुण्डल आदि बनाता है, इन्हें हाथोहा आदि अपने से भिन्न परद्रव्यात्मक करणो का सहारा लेकर बनाता है तथा परद्रव्यात्मक हथौडा आदि को वह उक्त कार्य को सम्पन्न करने के लिये ग्रहण करता है और कुण्डन आदि का निर्माण हो जाने पर पारिश्रमिक अथवा पारितोषक रूप मे प्राप्त होने वाले ग्रामवनादिक वस्तुओ का उपभोग भी करता है किन्तु भिन्न-भिन्न द्रव्य होने मे उन सबसे भिन्न ही रहता है तन्मय नही होता, अत यहा पर निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र से ही कर्तृ कर्मभाव व भोक्तृ भोग्यभाव व्यवहार मे आता है। इसी प्रकार आत्मा भी अपने से भिन्न पौद्गलिक पुण्य-पाप आदि कर्म करता है, पौद्गलिक काय, वचन और मनस्प करणो द्वारा करता है, पौद्गलिक काय, वचन और मनरूपकरणो को ग्रहण करता है और पुण्य-पापादिरूप कर्म के पौद्गलिक सुख-दु खादिरूप फल को भोगता है । किन्तु भिन्न-भिन्न द्रव्य होने से उन सबसे भिन्न ही रहता है तन्मय नही होता । अत यहा पर भी निमित्तनैमित्तिकभाव मात्र से कर्तृ कर्मभाव और भोक्तृ भोग्यभाव व्यवहार मे आता है । भिन्न हथौडा के साथ बनाने की फलस्वरूप प्राप्त तात्पर्य यह है कि सुवर्णकार अपने से द्वारा सुवर्ण' से कुण्डल बनाने की आकाक्षा के क्रिया भी करता है और बन जाने पर उसके धनादिक का उपभोग भी करता है फिर भी जैसे सोना कुण्डल बन जाता है वैसे सुवर्णकार, कुण्डल, हथौडा अथवा धन ये सव परस्पर एक दूसरे रूप परिणत होते नही देखे जाते हैं अलग
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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