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________________ ५७ अलग ही रहते है और इतने पर भी सोने की कुण्डलरूप परिणति, सुवर्णकार की उसको बनाने की आकाक्षा व बनाने की क्रिया, हथौडा आदि को ग्रहण करना और उसके जरिये कुण्डल का निर्माण होना तथा उसके निर्माणस्वरूप धनादि की प्राप्ति होना व उसका उपभोग सुवर्णकार द्वारा किया जाना ये सब बातें अनुभव, इन्द्रिय प्रत्यक्ष और युक्ति से असगत नही समझ मे आती है इसलिये इन सब मे अपने-अपने स्वभावानुसार निमित्तनैमित्तिकभाव की स्वीकृति कल्पना मात्र नही है और इस दृष्टान्त के आधार पर जो आत्मा को दृष्टान्त बना कर कथन किया गया है वह भी कल्पनामात्र न रह कर निमित्तो की तथा निमित्तनैमित्तिकभाव के आश्रित कार्यकारणभाव की सार्थकता को ही सिद्ध करता है। पहले भी बतलाया जा चुका है कि आत्मा अपने राग, द्वेष और मोह रूप अज्ञान से कर्मो से बधता है और वद्धकर्मों के परिपाक से आत्मा मे राग, द्वष और मोह रूप अज्ञान पैदा होता है। अब यदि निमित्तो की सार्थकता न मानी जावे और निमित्तो की उपेक्षा करके केवल उपादान की अपने आप ही कार्यरूप परिणति मान ली जावे तो राग, द्वेष और मोह रूप अज्ञान से आत्मा कर्मबन्धन को प्राप्त होती है तथा वद्ध कर्मों के परिपाक से आत्मा मे पुन राग, द्वष मोह रूप अज्ञान पैदा होता है. यह कथन निरर्थक ही हो जायगा। इस प्रकार यह बात निर्विवाद हो जाती है कि जितने स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष कार्य होते हैं उनमे केवल उपादानोपादेयभाव के आश्रय से कार्यकारणभाव की व्यवस्था निश्चित होती है और जितने स्वपरसापेक्ष कार्य होते है उनमे उपादानोपादेयभाव और निमित्तनैमित्तिकभाव दोनो के आश्रय से कार्यकारणभाव की व्यवस्था सिद्ध होती है क्योकि स्वपरसापेक्ष कार्य मे निमित्तनैमित्तिकभाव के आश्रय से जो कार्यकारणभाव बनता
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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