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________________ ५५ उपर्युक्त विवेचन से यह समझ मे आ जाता है कि स्वपरसापेक्ष कार्य की उत्पत्ति के लिये उपादानगत कार्योत्पत्ति की योग्यता के साथ-साथ यथावश्यक कर्ता, करण आदि अनुकूल निमित्तो का सहयोग प्राप्त होना आवश्यक है । इस प्रकार स्वपरसापेक्ष कार्य मे जितना बल उपादान को प्राप्त है उतना ही बल उपादान द्वारा अपेक्षित निमित्तो को भी मिल जाता है केवल भेद यह है कि उपादान तो कार्यरूप परिणत होता है और निमित्त उपादान की उस कार्यरूप परिणति मे अपनी सहायता प्रदान करके ही कृतकृत्य हो जाते है । निमित्त उपादान के बलाधान में सहायता करता है इसका भी यही आशय है । निमित्तनैमित्तिकभाव के आधार पर बनने वाली कार्यकारणभाव की व्यवस्था का वर्णन समयसार मे प्रचुरता के साथ पाया जाता है । यहा हम “जह सिप्पिओ दु कम्म" आदि ३४९ से ३५२ तक की गाथाओ के अर्थ के रूप मे आचार्य श्री अमृतचन्द्र की टीका का उद्धरण दे रहे है "यथा खलु शिल्पी सुवर्णकारादि कुण्डलादिपरद्रव्य परिणामात्मक कर्म करोति । हस्त कुट्टकादिभि परद्रव्यपरिणामात्मकं करणं करोति । हस्त कुट्टकादीनि परद्रव्यपरिणामात्मकानि करणानि गृह्णाति । ग्रामादि परद्रव्य परिणामात्मक कुण्डलादिकर्मफल भुक्तं च न त्वनेक द्रव्यत्वेन ततोऽन्यत्वे सति तन्मयो भवति । ततो निमित्तनैमित्तिकभाव मात्रेणैव तत्र कर्तृ - कर्म भोक्तृ भोग्यत्व व्यवहार । तथात्मा पि पुण्यपापादिपुद्गलपरिणामात्मक कर्म करोति । काय वाड मनोभि पुद्गल परिणामात्मकं करणं करोति 1 कायदाड मनासि पुद्गल परिणात्मकानि करणानि गृह्णाति । सुख दुखादि पुद्गलद्रव्य परिणामात्मक पुण्य पापादिकर्मफलं भुक्त े च न त्वनेकद्रव्यत्वेन
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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