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कर्ता, करण आदि रूप से निमित्तभूत वस्तुओं का सर्वदा अपने अपने स्वभाव मे रहते हुए अपना-अपना व्यापार अपने-अपने में हुआ करता है निमित्तो का केवल सहयोग मान उपादान को उसकी कार्यरूप परिणति में होता है ।
जिस प्रकार ऊपर ताडपत्र की विवक्षित अक्षरात्मक परिणति को कार्य मानकर उसकी उपादानता ताडपत्र मे स्वीकार की गयी है उसी प्रकार यदि पुद्गलात्मक शब्द वर्गणा की विवक्षित अक्षरात्मक परिणति को कार्य माना जाय तो फिर वहा पर उपादानभूत वस्तु ताडपत्र न होकर पुद्गलात्मक शब्द वर्गणा होगी तथा यदि श्री कुन्दकुन्दाचार्य को आत्मा के स्वभाव
कपने की भावात्मक समयसाररूप परिणति को कार्य माना जाय तो उपादानभूत वस्तु अभेद विवक्षा मे श्री कुन्दकुन्दाचार्य की आत्मा तथा भेद विवक्षा में आत्मा का स्वभाव ज्ञायकपना हो होगा। इतना अवश्य है कि उक्त प्रकार से उपादान को भिन्न-भिन्न रूपता प्राप्त हो जाने पर भी कार्य की परसापेक्षता मे कुछ अन्तर नही पटता है अत यहा पर भी कार्यकारणभाव की विवेचना का आधारभूत निमित्तनैमित्तिकभाव उपादानोपादेयभाव के साथ सतत बना ही रहता है अन्तर सिर्फ यह है कि जहा ताडपत्र समयसार का उपादान था वहा करण लोहे की शलाका थी, जहा पुद्गलात्मक शब्दवर्गणा उपादान वन गयी वहा आचार्य श्री कुन्दकुन्द का पौद्गलिकमुख अथवा मुख के सहारे पर आत्म प्रदेशपरिस्पन्दात्मक वचन योग को करणता प्राप्त हो गयी और जहा कुन्दकुन्दाचार्य की आत्मा का स्वभावभूत ज्ञायकपना उक्त भाव समयसारस्प कार्य का उपादान बना तो वहा आचार्य श्री कुन्दकुन्द के पीद्गलिक मस्तिष्क को अथवा कार्यानुकूल ज्ञानावरण कर्म के क्षयोपशम को करणता प्राप्त होगयी ।