SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४६ हो परन्तु परिणमित होने वाली वस्तु को परिणमित होने मे सहायक अवश्य हो अर्थात् जिसकी सहायता के विना परिणमित होने वाली वस्तु परिणमित न हो वह 'पर' कहलाता है इसे निमित्त अर्थात् सहायक कारण भी कहते है । इसकी अपेक्षा स्वपरसापेक्ष परिणमन मे ही रहा करती है स्वसापेक्ष परनिरपेक्ष परिणमन मे नही । स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष परिणमनो में भेद कारण । ऊपर के कथन से यह वात स्पष्ट हो जाती है कि स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष दोनो परिणमनो मे भेद का कारण उस उस परिणमन मे पायी जाने वाली परनिरपेक्षता और परसापेक्षता ही है क्योकि परिणमन के प्रतिनियत रहने ( स्वभाव की परिधि मे होने) के कारण स्व की अपेक्षा तो दोनो परिणमनो मे समान रूप से रहा करती है इससे यह भी निष्कर्ष निकला कि वस्तु मे अथवा वस्तु के स्वभाव मे कोई परिणमन स्व की अपेक्षारहित केवल परसापेक्ष नही होता है । अर्थात् वस्तु मे अथवा वस्तु के स्वभाव मे जिस प्रकार के परिणमन की योग्यता विद्यमान नही है उस प्रकार का परिणमन वस्तु मे अथवा वस्तु के स्वभाव मे केवल पर के बल पर त्रिकाल मे कभी भी नही हो सकता है । यही कारण है कि आगम मे स्वनिरपेक्षपरसापेक्ष परिणमन का विधान नही पाया जाता है प्रत्युत स्वनिरपेक्षपरसापेक्ष परिणमन का आगम मे दृढता के साथ निषेव ही किया गया है । इस सम्बन्ध मे समयसार की ११६ से १२० तक की व १२१ से १२५ तक की गाथाओ तथा गाथा १०३ का गहराई के साथ अवलोकन करना चाहिये ।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy