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________________ ४७ क्योकि इनमे स्वनिरपेक्षपरसापेक्ष परिणमन का स्पष्ट रूप से निषेध किया गया है। स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष परिणमनो के सम्बन्ध मे यह बात भी ध्यान मे रखना चाहिये कि दोनो प्रकार के परिणमनो मे से प्रत्येक परिणमन मे विद्यमान अपनी अपनी परनिरपेक्षता और परसापेक्षता स्वय सिद्ध समझना चाहिये, इसलिये परनिरपेक्ष परिणमन हमेशा परनिरपेक्ष ही हुआ करता है और परसापेक्ष परिणमन हमेशा परसापेक्ष ही हुआ करता है। इसी प्रकार दोनो ही परिणमनो मे समान रूप से विद्यमान स्वसापेक्षता को भी स्वय सिद्ध समझना चाहिये। दोनो प्रकार के परिणमनों का दायरा स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष परिणमन की विवेचना करते हुए आचार्य श्री पद्मप्रभमलधारिदेव ने आचार्य श्री कुन्दकुन्द द्वारा विरचित नियमसार के जीवाधिकार सम्बन्धी गाथा १४ की टीका मे निम्नलिखित कथन किया है "अत्र स्वभावपर्याय. षड्द्रव्यसाधारण अर्थ पर्याय अवाड मानसगोचर अतिसूक्ष्म आगमप्रामाण्यादभ्युपगम्योऽपि च षड्ढानिवृद्धिविकल्पयुत । अनन्तभागवृद्धि , असख्यात भागवृद्धि , सख्यातभागवृद्धि , सख्यातगुणवृद्धि , असख्यातगुणवृद्धि , अनन्तगुणवृद्धि. तथा हानिश्च नीयते ।" अर्थ-स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष और स्वपरसापेक्ष दोनो प्रकार की पर्यायो ( परिणमनो ) मे से स्वभाव पर्याय (स्वसापेक्षपरनिरपेक्ष परिणमन ) छह प्रकार के सभी द्रव्यो ( एकधर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाशद्रव्य, असख्यात कालद्रव्य, अनन्तानन्त जीवद्रव्य और अनन्तानन्त पुद्गलद्रव्य इन सब द्रव्यो ) मे
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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