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________________ ४१ कुम्भकार कुम्भ का उत्पादक न होकर मृत्तिका ही कुम्भकार के स्वभाव को नही छूती हुई अपने स्वभावरूप से कुम्भरूपता को प्राप्त होती है । इसका आशय यही है कि जब मृत्तिका घटरूप से उत्पन्न होती है तो वह घट सतत मृत्तिका के स्वभाव मे ही रहता है । इस तरह प्रत्येक वस्तु का परिणमन कभी भी उस वस्तु के स्वभाव का अतिक्रमण नही करता है । अर्थात् परिणमन होते हुए भी उसमे वस्तु की स्वभावरूपता सतत बनी ही रहती है । इस तरह उत्पाद तथा व्यय के अवसर पर इस स्वभावरूपता का बना रहना ही धौव्य कहलाता है । आप्त मीमासा की निम्नलिखित कारिका का भी यही अभिप्राय है । नसामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् । व्येत्युदेति विशेषात्ते सहैकत्रोदयादि सत् ॥५७।। अर्थ - वस्तु अपने सामान्य स्वभाव से न उत्पन्न होती है और न विनष्ट होती है विशेष स्वभाव से ही उत्पन्न और विनष्ट होती है । इस तरह उत्पाद, व्यय और धीव्य तीनो की एक वस्तु मे एक साथ स्थिति रहा करती है । इस कारिका मे विशेष (उत्पाद और व्यय रूप अशो) के साथ वस्तु के सामान्य ( ध्रौव्य ) की स्थिति को स्वीकार किया गया है जो इस बात का सूचक है कि उत्पाद और व्यय बिना श्रीव्य के नही रहते । अत परिणमन का अर्थ उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य इन तीनो की वस्तु मे एक साथ स्थिति अथवा एकरूपता ही ग्रहण करना युक्त है ।
SR No.010368
Book TitleJain Tattva Mimansa ki Mimansa
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Pandit
PublisherDigambar Jain Sanskruti Sevak Samaj
Publication Year1972
Total Pages421
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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