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होते हुए भी उनका अपना दर्शनपना और ज्ञानपना सतत बना ही रहा करता है।
समयसार गाथा ३७२ की टीका मे आचार्य अमृतचन्द्र के निम्नलिखित कथन द्वारा उल्लिखित बात का ही समर्थन होता है।
__ "सर्वद्रव्याणा स्वभावेनैवोत्पादात् । तथा हि मृत्तिका कुम्भभावेनोत्पद्यमाना किं कुम्भकारस्वभावेनोत्पद्यते किं मृत्तिका स्वभावेन ? यदि कुम्भकारस्वभावनोत्पद्यते तदा कुम्भकरणा'हकारनिर्भर पुरुषाधिष्ठितव्याप्तकरपुरुपशरीराकार कुम्भः स्यात्, न च तथास्ति, द्रव्यान्तर स्वभावेन द्रव्यपरिणामोत्पादस्यादर्शनात् । एव च एति मृत्तिकाया स्वस्वभावानतिक्रमान्न कुम्भकार कुम्भस्योत्पादक एव मृत्तिकैव कुम्भकार स्वभाव मस्पृशन्ती स्वस्वभावेन कुम्भभावेनोत्पद्यते ।"
अर्थ-समस्त द्रव्यो का उत्पाद स्वभाव से (स्वभाव की परिधि मे) ही होता है । अर्थात् द्रव्य के अपने किसी भी उत्पाद मे उस द्रव्य का अपना स्वभाव नष्ट नही होता है। जैसे मृत्तिका जव घट रूप से उत्पन्न होती है तो प्रश्न खडा होता है कि वह क्या कुम्भकार के स्वभाव रूप से घट बनती है अथवा मृत्तिका के अपने स्वभाव रूप से घट बनती है ? यदि कुम्भकार स्वभावरूप से घट बनती है-ऐसा माना जावे तो फिर घट के उत्पादन के अहकार से परिपूर्ण पुरुष से अधिष्ठित और हस्तो के व्यापार से युक्त शरीर के आकार का ही घट बनना चाहिये, किन्तु ऐसा नही होता है। अर्थात् घट की उत्पत्ति कुम्भकार के उल्लिखित स्वभावरूप से नही हुआ करती है क्योकि एक द्रव्य का परिणमन कभी भी दूसरे द्रव्य के स्वभावरूप से नही हुआ करता है। इस प्रकार मृत्तिका जब अपने स्वभाव को छोडती नही तो फिर