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वस्तु स्वरूप स्वतःसिद्ध है जैन-संस्कृति मे वस्तुओ की सख्या इस प्रकार निर्धारित की गयी है-एक धर्मद्रव्य, एक अधर्मद्रव्य, एक आकाश द्रव्य, असख्यात काल द्रव्य, अनन्तानन्त जीव द्रव्य और अनन्तानन्त पुद्गल द्रव्य । इन सब द्रव्य रूप वस्तुओ को स्वत.सिद्ध माना गया है अत. इनके सम्बन्ध मे निम्नलिखित चार बातें फलित होती है।
प्रत्येक वस्तु की सत्ता अनादि काल से है और अनन्त काल तक रहने वाली है। इसी प्रकार प्रत्येक वस्तु आत्मनिर्भर तथा स्वरूप के साथ तादात्म्य को प्राप्त होकर रह रही है। पचाध्यायी प्रथम अध्याय मे वस्तु के सम्बन्ध मे इन्ही चार बातो का समर्थन किया गया है । यथा
तत्त्वं सल्लाक्षणिक सन्मानं वा यत स्वतः सिद्धय । तस्मादनादिनिधन स्वसहाय निर्विकल्प च ॥८॥
अर्थ-स्वरूप और स्वरूपवान मे भेद दृष्टि अपनाने से 'सत्' जिसका लक्षण है और अभेद दृष्टि अपनाने से जो स्वय 'सत्' है वही तत्त्व है-वस्तु है और क्योकि वह स्वत सिद्ध है अत: वह अनादि ( उत्पत्ति रहित ), अनिधन (विनाश रहित), स्वसहाय ( आत्मनिर्भर ) और निर्विकल्प ( स्वरूप के साथ तादात्म्य को लिये हुए ) है।
इन चार बातो मे से यदि किसी भी एक बात की उपेक्षा करके वस्तु को स्वीकार करने का प्रयत्न किया जायगा तो वस्तु व्यवस्था में जो गडबडी होगी उसका सकेत पचाध्यायी मे वही पर आगे निम्न प्रकार किया गया है ।