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पूर्वोक्त प्रकार प० फूलचन्द्रजो ने भी निमित्तो को कार्योत्पत्ति के अवसर पर उपादान का बलाधायक स्वीकार किया है अतः यही सिद्धान्त स्थिर होता है कि जितने स्वपरसापेक्ष कार्य होते है उन सब की उत्पत्ति मे उपादान को निमित्तो के सहयोग की नियम से आवश्यकता रहा करती है।
इस तरह कार्यकारणभाव के सम्बन्ध मे प० फूलचन्द्रजी का यह सिद्धान्त समाप्त हो जाता है कि प्रत्येक वस्तु मे कार्यरूप से परिणत होने की उतनी ही उपादान शक्तिया विद्यमान हैं जितने काल के अकालिक समय सभव है तथा यह सिद्धान्त भी समाप्त हो जाता है कि वस्तु के प्रत्येक परिणमन का समय निश्चित है। इसके अतिरिक्त यह सिद्धान्त भी समाप्त हो जाता है कि कार्योत्पत्ति मे निमित्तो का होना अकिंचित्कर है। एक वात पूर्व मे यह बतलायी ही जा चुकी है कि कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध मे निमित्तो को स्थान देने मे जैन आगम का यही अभिप्राय है कि जव जैसे निमित्तो का सहयोग उपादान को प्राप्त होता है तब उपादान अपनी योग्यतानुसार तदनुकूल कार्य के रूप मे ही परिणत होता है । कार्योत्पत्ति के सम्बन्ध मे निमित्तो को स्थान देने मे जैन आगम का यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि उपादान अपनी स्वकालगत योग्यता के अनुसार जव जिस कार्यरूप परिणत होता है तब तदनुकूल निमित्त भी वहा उपस्थित रहा करते हैं जैसा कि प० फूलचन्द्र जी स्वीकार करते हैं।
आग कार्योत्पत्ति मे निमित्तो की सार्थकता सिद्ध करने के लिये क्रमवद्ध विचार करने की आवश्यकता है अत सर्वप्रथम यहा पर वस्तु की स्थिति के विपय मे विचार किया जाता है।