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पर्यायों की सिद्धि मात्र केवल ज्ञान के अवलम्बन से न करके कार्यकारण परम्परा को ध्यान मे रखकर की जानी चाहिये।"
__इसके अतिरिक्त जैनतत्त्वमीमासा के पृष्ठ २६७ पर भी प० जी ने लिखा है
___ "माना कि केवलज्ञान जानने वाला है और सकल पदार्थ उसके ज्ञेय है इसलिये केवलज्ञान से जैसा जानते हैं मात्र इसी कारण पदार्थो का वैसा परिणमन नही होता, क्योकि उनका परिणमन अपनी कार्यकारणपरम्परा के अनुसार होता है। केवलज्ञान आकर उन्हे परिणमाता हो और तव वे परिणमन करते हो यह नहीं है । वह उनके परिणमन मे निमित्त भी नही है।"
इस तरह पं० फूलचन्द्रजी की दृष्टि मे भी केवलज्ञान के आधार पर जहा जैसा कार्यकारणभाव है उसका निषेध नही होता है । अत कार्य की उत्पत्ति अपने अनुकूल कारणो से होती है यह वात निर्विवाद हो जाती है और तव यह प्रश्न खडा होता है कि सभी कार्य क्या स्वप्रत्यय ही होते है ? इस सम्बन्ध मे प० फूलचन्द्रजी का कहना तो यही है कि सभी कार्य स्वप्रत्यय ही होते है परन्तु उनसे मतभेद रखने वालो का अनूभव, युक्ति और आगम के आधार पर यह कहना है कि सभी कार्यों में से कोई कार्य तो स्वप्रत्यय कार्यों की कोटि मे आते है और कोई कार्य स्वपरप्रत्यय कार्यों की कोटि मे आते है जैसा कि आगे स्पष्ट किया जायगा ।
(३) इसी प्रसग मे प० फूलचन्द्रजी ने नित्य उपादान और अनित्य उपादान की भी चर्चा की है और कहा है कि नित्य उपादान तो वस्तु के स्वत सिद्ध तथा अनादिस्वभावरूप होता है व अनित्य उपादान वस्तु की कार्यरूप पर्याय से अव्यव